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बच्चे की धार्मिक स्वतंत्रता

सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता राजस्थान हाइकोर्ट ने बच्चे के अधिकारों की हिफाजत में एक अहम फैसला सुनाया है. न्यायमूर्ति सुश्री बेला त्रिवेदी ने अपने आदेश में बच्चे के माता-पिता को अपनी पांच माह की संतान मुल्कराज को एक साधु को सौंपने पर रोक लगा दी. जयपुर के व्यापारी युगल ने, जो मध्य प्रदेश के छोटे […]

सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
राजस्थान हाइकोर्ट ने बच्चे के अधिकारों की हिफाजत में एक अहम फैसला सुनाया है. न्यायमूर्ति सुश्री बेला त्रिवेदी ने अपने आदेश में बच्चे के माता-पिता को अपनी पांच माह की संतान मुल्कराज को एक साधु को सौंपने पर रोक लगा दी.
जयपुर के व्यापारी युगल ने, जो मध्य प्रदेश के छोटे सरकार नामक साधु के अनुयायी हैं, अपनी एक माह की संतान को उपरोक्त साधु की गोद में दिया था, जिसने बच्चे को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया था. जब यह खबर बच्चे के दादा-दादी को मिली, तो वे हाइकोर्ट चले गये, जहां उनके पक्ष में निर्णय हुआ. अदालत ने कहा कि यह बच्चा तय करेगा कि वह साधु बनेगा या शैतान, आप उस पर ऐसा कोई निर्णय नहीं लाद सकते.
बच्चे को धर्म के बंधन में जबरदस्ती बांधने पर इसके पहले भी कई अदालती हस्तक्षेप सामने आये हैं.कुछ समय पहले मुंबई हाइकोर्ट ने तीन साल की एक बच्ची के संरक्षण के मामले में अहम फैसला दिया था और ईसाई पिता एवं हिंदू मां की इस बच्ची का संरक्षण नाना-नानी को सौंप दिया था. बच्ची का पिता अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में जेल में था और बच्ची नाना-नानी के संरक्षण में रह रही थी.
बच्ची के पिता एवं उसकी बुआ ने कुछ समय पहले अदालत में याचिका दायर की थी कि उसका संरक्षण उन्हें मिले, क्योंकि वह बच्ची को कैथोलिक तरीके से पालना चाहते हैं, लेकिन अदालत ने कहा कि संतान के धर्म को लेकर उनके तर्क संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते.
बच्चे के धर्म को लेकर यह अदालती हस्तक्षेप मुंबई के अखबारों में छपी एक खबर की याद ताजा करता है, जिसमें फोकस अंतरधर्मीय विवाह करनेवाले एक युगल द्वारा अपनी नवजात संतान के साथ किसी धर्म को चस्पा न करने के फैसले पर था.
मराठी परिवार में जन्मी अदिति शेड्डे और गुजराती परिवार में पले आलिफ सुर्ती (जो चर्चित काटरूनिस्ट आबिद सुर्ती के बेटे हैं) के निजी जीवन के इस छोटे से फैसले ने सुर्खियां बटोरी थीं. इस युगल का मानना था कि बड़े होकर उनकी संतान जो चाहे वह फैसला कर ले, आस्तिकता का वरण कर ले, अट्ठेयवादी बन जाये या धर्म को मानने से ही इनकार कर दे, लेकिन उसकी अबोध उम्र में उस पर ऐसे किसी निर्णय को लादना गैरवाजिब होगा.
निश्चित ही अपने इस फैसले पर अमल करने में उनके सामने काफी बाधाएं आयी थीं. संतान का जन्म प्रमाणपत्र तैयार करने में दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े. एक अफसर ने तो अदिति से पूछ लिया कि क्या तुम्हें हिंदू होने पर शर्म है?
अदिति ने जवाब दिया कि भले ही वह हिंदू परिवार में जन्मी हो, लेकिन किसी रीति-रिवाज को नहीं मानती और अहम बात यह है कि क्या एक जनतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में मां-बाप यह फैसला नहीं ले सकते कि वह अपनी संतान को किसी धर्म से नत्थी नहीं करेंगे?
सवाल है कि आज जब विज्ञान ने हमें अब तक चले आ रहे तमाम रहस्यों को भेदने का मौका दिया है और दूसरी तरफ हम आस्था के चलते सुगम होती विभिन्न असहिष्णुताओं व विवादों के प्रस्फुटन को अपने इर्द-गिर्द देख रहे हैं, उस दौर में संतान और मां-बाप/अभिभावक की धार्मिक आस्था के संदर्भ में कैसी अंतक्र्रिया अधिक उचित जान पड़ती है?
एक रास्ता यह दिखता है कि 21वीं सदी में भी अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं से अपनी संतानों को लैस करने के मां-बाप के विशेषाधिकार पर हुबहू अमल होता रहे या दूसरा रास्ता यह भी हो सकता है कि इस मसले को खोल दिया जाये. प्रख्यात ब्रिटिश विद्वान रिचर्ड डॉकिन्स- जिन्होंने बालमन पर होनेवाले धार्मिक प्रभावों के परिणामों पर विस्तार से लिखा है- के विचारों से इस मसले पर रोशनी पड़ती है.
वह एक छोटा-सा सुझाव देते हैं कि क्या हम ‘ईसाई बच्चा/बच्ची’ कहने के बजाय ‘ईसाई माता-पिता की संतान’ के तौर पर बच्चा/बच्ची को संबोधित नहीं कर सकते, ताकि बच्चा यह जान सके कि आंखों के रंग की तरह आस्था को अपने आप विरासत में ग्रहण नहीं किया जाता.
स्पष्ट है कि इसमें फैसला लेने में हम सब अधिक दुविधा का सामना इसलिए करते हैं, क्योंकि हम अकसर धार्मिक मान्यता एवं नैतिकता को जोड़ कर देखते हैं. हमें यह लगता है कि बच्चे को अगर धर्म की शिक्षा नहीं दी जायेगी, तो उसके ‘अनैतिक’ होने की संभावना है.
यह हम देख नहीं पाते कि नास्तिक लोग अपनी संतानों को उन्हीं नैतिक मूल्यों से अवगत कराते दिखते हैं. वैसे बच्चे के धर्म को लेकर अदालत के फैसले में हम भारतीय संस्कृति की धूमिल होती जा रही वैज्ञानिक चिंतन-धारा की झलक भी देख सकते हैं.
आज से ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध ने एक वैचारिक क्रांति का आगाज किया था. महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पहले उनके परमशिष्य आनंद ने उनसे अंतिम संदेश पूछा था. बुद्ध का जवाब था ‘अप्पो दीपम् भव्’! अपने दीपक आप बनो. क्या हम अपनी संतानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं?

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