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सचमुच, हम पक्के हिंदुस्तानी हैं!

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रभाषा आदि हमारी अस्मिता के प्रतीक हैं. अस्मि मतलब ‘हूँ’ और ‘ता’ मतलब होने का भाव. मेरे होने का भाव. यानी यह भाव कि मैं हूं. इतना ही नहीं कि मैं हूँ, बल्कि मैं ही मैं हूं. अकेला मैं ही हूं-एको अहम्. और चूंकि अकेला मैं ही हूं, […]

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रभाषा आदि हमारी अस्मिता के प्रतीक हैं. अस्मि मतलब ‘हूँ’ और ‘ता’ मतलब होने का भाव. मेरे होने का भाव. यानी यह भाव कि मैं हूं. इतना ही नहीं कि मैं हूँ, बल्कि मैं ही मैं हूं.

अकेला मैं ही हूं-एको अहम्. और चूंकि अकेला मैं ही हूं, तो फिर दूसरा नहीं है-द्वितीयो नास्ति. दूसरा या तो नहीं है या होकर भी नहीं है. न केवल अकेला मैं ही हूं और दूसरा होकर भी नहीं है, बल्कि मैं ब्रह्म हूं-अहं ब्रह्मस्मि.

और फिर चूंकि मैं ही ब्रह्म भी हूं, तो फिर मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्जी. फिर चाहे बालकनी से कूड़ा फेंकूं, रांग साइड से गाड़ी ले जाऊं या लाइन तोड़ कर आगे घुस जाऊं.

राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति हमारी निष्ठा का तो यह आलम है कि बीते 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर योग करते हुए हमारे रोल मॉडल प्रधानमंत्री ने तिरंगे जैसी चुनरी गले में लपेटी हुई थी और हालांकि अपनी छप्पन इंच की तोंद के कारण वे सही तरह से योग नहीं कर पा रहे थे, फिर भी पसीना तो उन्हें आ ही रहा था, जिसे वे उस तिरंगे की चुनरी से ही पोंछते जा रहे थे.

उनके योग करते हुए वह तिरंगा कई बार जमीन को भी छू गया और उनके पैर को तो छूता ही रहा. कोई आम आदमी होता तो राष्ट्रीय गौरव अपमान रोकथाम अधिनियम 1971 और फ्लैग कोड ऑफ इंडिया 2002 के अंतर्गत धरा जाता. क्योंकि सारी आजादी आम आदमी के लिए ही तो आयी है! अब कुछ तो कीमत चुकानी होगी उसे आजादी की.

तभी तो उसे आजादी की सही कीमत पता चलेगी. नेता तो बेचारे अभी भी गुलाम हैं. जनता के सेवक. और चूँकि सेवक हैं, इसलिए आजाद नहीं हैं और चूंकि आजाद नहीं हैं, इसलिए नियम-कायदे मानने के लिए बाध्य भी कैसे कहे जा सकते हैं.

नेताओं से प्रेरित होकर जनसामान्य भी राष्ट्रीय ध्वज के प्रति तरह-तरह से सम्मान व्यक्त करता रहता है. बहुत से लोग, खासकर महिलाएं तो राष्ट्रीय ध्वज के अंतर्वस्त्र भी बना लेती हैं.

असल में वे राष्ट्रध्वज से अपनी आत्मा की गहराई से प्यार करती हैं और हो सकता है कि उनकी आत्मा उनके उन्हीं अंगों के आसपास रहती हो. मर्द भी असल में उनके विशिष्ट अंगों को उनकी आत्मा में झांकने के लिए ही घूरा करते हैं और महिलाएं उन्हें गलत समझ कर व्यर्थ ही बदनाम किया करती हैं.

राष्ट्रध्वज को लेकर अल्पसंख्यक संस्थाओं की तो और भी उदात्त धारणा है. उन संस्थाओं की भी, जो सरकारी सहायता से चलती हैं. उन्हें सरकारी सहायता लेने से तो उनका धर्म मना नहीं करता, पर झंडा फहराने से करता है. राष्ट्रगान गाने से भी उन्हें अपने धर्म पर संकट आता लगता है.

राष्ट्रगान न आना आम आदमी के लिए तो भारतीय होने का प्रमाण ही बन गया है. एक बार अपना मित्र घसीटामल गलती से सीमा पार चला गया. वापस लौटा, तो वहां सीमा पर फौज के जवानों ने उससे पूछताछ की. उसने बताया कि मैं गलती से सीमा पार कर गया था, मैं हिंदुस्तानी ही हूं.

जवानों ने कहा कि खुद को हिंदुस्तानी साबित करने के लिए राष्ट्रगान सुनाओ. इस पर उसने सीना ठोंकते हुए कहा कि- जी, वह तो मुङो आता नहीं. इस पर उन जवानों ने यह कहते हुए उसे देश की सीमा में आने दिया कि यह पक्का हिंदुस्तानी है.

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