स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का संबोधन मात्र एक रस्म अदायगी नहीं होती है. यह संबोधन सरकार की बीते साल की उपलब्धियों का बखान और भावी पहलों की उद्घोषणा का अवसर होता है. आजादी की 69वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण को इन्हीं दो आधारों पर विश्लेषित किया जाना चाहिए. एक बरस पहले, प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले संबोधन में उन्होंने देश की उम्मीदों को नये तेवर और कलेवर से सजाने के वायदे किये थे. भारी जनादेश की महत्वाकांक्षाओं को उस संबोधन ने आशा की एक नयी उड़ान दी थी. तब शीशे के सुरक्षा-कवच को हटाने जैसे संकेतात्मक निर्णय से लेकर योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग बनाने जैसी बड़ी घोषणाओं के बीच उनकी आकर्षक भाषण-शैली और जनता से सीधे संवाद साधने की क्षमता ने भारत के भरोसे को मजबूती दी थी. इस वर्ष संबोधन उन उम्मीदों को हकीकत का जामा पहनाने में सरकार की कामयाबी और भविष्य की चुनौतियों के सारगर्भित आकलन का एक अवसर था.
प्रधानमंत्री ने देश की भीषण समस्याओं- जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार- की चर्चा की और इनसे निपटने के अपने पुराने संकल्प को फिर से रेखांकित किया. ‘स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया’ के लुभावने नारे के माध्यम से उन्होंने उद्यमशील और आत्मनिर्भर भारत बनाने की बात कही. निश्चित रूप से यह विचार-दृष्टि ‘मेक इन इंडिया’ का आधार है और देश की अर्थव्यवस्था को गतिशील कर समृद्धि और विकास की राह पर ले जानेवाली है. पिछले एक साल में वित्तीय समावेशीकरण की प्रक्रि या के साथ जन-कल्याण की योजनाओं को समाज के निचले तबके तक पहुंचाने के प्रयासों ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की है. विदेशों से काला धन वापस लाने के लिए उठाये गये कदम भी सराहनीय हैं. भयावह संकट से जूझ रहे किसानों और बेबस जीवन जीने को मजबूर मजदूरों की स्थिति पर प्रधानमंत्री द्वारा जतायी गयी चिंता भी बिल्कुल वाजिब है. सम्मानजनक पेंशन की मांग कर रहे सेवानिवृत्त सैनिकों को भी उन्होंने भरोसा दिया है. निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के संबोधन में ये कुछ सराहनीय बातें हैं और उनके संकल्प भारत को बेहतरी की दिशा में संचालित कर सकते हैं.
परंतु, देखना यह भी होगा कि क्या उनका संबोधन पिछले वर्ष उनको मिले अपार जनादेश और लाल किले से दिये गये पहले भाषण से उपजी उम्मीदों के अनुरूप है? क्या पिछले एक साल की उद्घोषणाओं, वादों और संकल्पों को उपलब्धियों में बदला जा सका है? अगर हां, तो किस हद तक? ये सवाल जरूरी हैं और इनके विश्लेषण से निकले निष्कर्ष ही भावी भारत के निर्माण के मार्ग को सुगम बना सकते हैं. खेती पर आज भी देश की करीब दो तिहाई आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है, लेकिन सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान लगातार कम होता जा रहा है. कृषि संकट के कारण किसानों की आत्महत्या की खबरें अब भी आ रही हैं. नुकसान के कारण किसान और खेतिहर मजदूर अवसाद-भरी स्थितियों में शहरों में पलायन के लिए मजबूर हो रहे हैं. वहां भी शोषण और बेबसी के अभिशाप से उन्हें मुक्ति नहीं मिल रही है. किसानों को कम ब्याज पर ऋण देने, सिंचाई एवं अन्य सुविधाएं मुहैया कराने, उपज के लिए लाभकारी मूल्य और बाजार उपलब्ध कराने जैसे मामलों में सरकार अब तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठा सकी है. कृषि मंत्रलय के नाम में किसान कल्याण जोड़ देने भर से हालात में सुधार नहीं आयेगा. इसके लिए ठोस नीतिगत पहलों की जरूरत है. अगर बदहाल किसानों और मजदूरों की बेहतरी के लिए कदम नहीं उठाये जायेंगे, अगर ग्रामीणों को बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं करायी जाएंगी और अगर सरकारी कार्यालयों का ढीलापन, नौकरशाही की लापरवाही और कार्यान्यवयन की उदासीनता बरकरार रही, तो फिर स्टार्ट अप, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत जैसे आकर्षक नारे सिर्फ जुमले बन कर रह जायेंगे.
आज ग्रामीण भारत के करीब 75 फीसदी परिवारों में कोई भी ऐसा सदस्य नहीं है, जिसकी मासिक आमदनी पांच हजार रु पये से अधिक हो. शहरी क्षेत्र में महंगाई, किराया और समुचित रोजगार का अभाव लोगों की आमदनी को लगातार कम कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में उनके लिए सरकार की मदद ही एकमात्र सहारा है. जिस उत्साह से सरकार भूमि अधिग्रहण, वस्तु एवं सेवा कर तथा कॉरपोरेट करों के मुद्दे पर सिक्र य बनी रही है, उस तरह की सिक्र यता किसानों, मजदूरों और गरीबों के मसलों पर दिखायी नहीं दे रही. जाहिर है, प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में व्यक्त संकल्प और भावनाएं एकदम सही हैं, परंतु उन्हें ठोस रूप में धरातल पर उतारने के लिए अब कारगर नीतियों और योजनाओं की जरूरत है. यदि ऐसा नहीं किया गया, तो ये संकल्प उपलब्धियों के रूप में देश के विकास की राह में मील का पत्थर नहीं बन सकेंगे और प्रधानमंत्री को अगले वर्ष भी स्वाधीनता दिवस पर इन्हीं संकल्पों को दुहराना होगा. हालांकि प्रधानमंत्री के आह्वान की दृढ़ता से यह आशा बंधती है कि स्वाधीनता की 70वीं वर्षगांठ पर हम इन पहलों को हकीकत के रूप में महसूस कर सकेंगे और विकास के पिरामिड को कुछ और ऊंचाई प्रदान करेंगे.