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फासला स्मार्ट इंडिया एवं ग्रामीण भारत का

कविता विकास स्वतंत्र लेखिका एक ओर डिजिटल इंडिया धूम के साथ चमक रहा है. महानगरों में चमचमाती स्ट्रीट लाइट के बीच महंगी कारों के काफिले, गगनचुंबी इमारतें और होर्डिग्स में मुस्कुराती स्मार्ट लेडीज को देख कर लगता है कि यह इंडिया स्मार्ट हो रहा है. दूसरी ओर भारत की झुग्गी-झोपड़ियों में आज भी करोड़ों लोग […]

कविता विकास

स्वतंत्र लेखिका

एक ओर डिजिटल इंडिया धूम के साथ चमक रहा है. महानगरों में चमचमाती स्ट्रीट लाइट के बीच महंगी कारों के काफिले, गगनचुंबी इमारतें और होर्डिग्स में मुस्कुराती स्मार्ट लेडीज को देख कर लगता है कि यह इंडिया स्मार्ट हो रहा है.

दूसरी ओर भारत की झुग्गी-झोपड़ियों में आज भी करोड़ों लोग दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं. एक ही देश में इतनी असमानता! और इसी असमानता का एक रूप यह भी है कि जिस दिन कई गंभीर अपराधों में लिप्त अपराधियों को रांची हाइकोर्ट से उम्रकैद की सजा सुनाये जाने पर राज्य सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी, उसी दिन राज्य के एक गांव में पांच महिलाओं को डायन बता कर सरेआम मार डाला गया.

गांववालों की समझ की हद देखिए-एक बच्चे की पीलिया से मौत हो गयी और उसकी बहन ने गांववालों को बताया कि गांव की सात महिलाएं डायन हैं, जो उसके भाई की मौत के लिए जिम्मेवार हैं! उसकी इस उक्ति पर पूरा गांव उन औरतों को मारने के लिए टूट पड़ा! यह घटना न केवल अशिक्षा के दुष्परिणाम को सामने लाती है, बल्कि आधुनिक युग में विज्ञान की सार्वभौमिक सत्ता की धज्जियां भी उड़ाती है.

अभी तो डिजिटल इंडिया के विश्वास ने जड़ पकड़ना ही शुरू किया है, कि भारत में एक बार फिर अंधविश्वास की जीत हो गयी.

मामले की तह तक जाएं तो पता चलता है कि यह घटना सिर्फ अंधविश्वास की उपज नहीं है.

इसके पीछे समाज और पंचों का हाथ है. पंचों के ज्यादातर फैसलों में संविधान या कानून की समझ तो नहीं ही होती, मानवीयता का भी अभाव दिखाई देता है. वे सजा के तरीके को भयानक बना कर खौफ पैदा करना चाहते हैं.

ऐसे पंचों को जब न पुलिस का खौफ हो और न प्रशासन का, तो मतलब साफ है कि दोनों उनसे मिले हुए हैं. अब इस घटना पर पुलिस का बयान आया है कि उन्होंने मौके पर पहुंच कर पांचों महिलाओं के कलेजे को बचा लिया, अन्यथा ग्रामीण उसे खा जाते. इस बयान पर पुलिस अपनी वाहवाही लूट रही है. कोई तो उन्हें समझाये कि जब जान ही नहीं बची, तब कलेजा बचाकर आपने कौन सा तीर मार लिया!

हम संसार के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक हैं. अपनी अनंत समस्याओं के बावजूद देश की अखंडता को बनाये रखने के लिए सदा एकजुट होते आये हैं. तो ऐसी घटनाओं के विरोध में कारगर आवाज क्यों नहीं उठा पाते? एक-दो दिन की बंदी के बाद फिर से प्रशासन के ढुलमुल रवैये के आगे घुटने टेक देते हैं.

ऐसे माहौल में समाज को अंधविश्वासों से ऊपर उठने का सबसे उपयोगी साधन है- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का प्रसार, जिसका प्रदेश में नितांत अभाव है. राज्य के सुदूर ग्रामीण इलाकों में गंदगी, मच्छर और कुपोषण के कारण लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं, लेकिन तांत्रिक, ओझा आदि अपने मतलब के लिए किसी को डायन घोषित कर देते हैं.

खबरों के मुताबिक बीते आठ महीने में ही डायन बता कर 40 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है. वास्तव में विकास सबसे पहले ऐसे पिछड़े इलाकों में होना चाहिए, न कि पहले से विकसित शहरों को स्मार्ट और डिजिटल बनाने पर सारा ध्यान केंद्रित कर देना चाहिए.

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