बात से ही बात निकलेगी और राह बनेगी

राजेंद्र तिवारी,कॉरपोरेट एडिटर,प्रभात खबर भारत-पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बातचीत की तैयारी है. पाकिस्तानी सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज भारत आ रहे हैं और 23-24 अगस्त को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से उनकी बातचीत होगी. हमेशा की तरह इस बार भी दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग ने कश्मीरी अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 20, 2015 4:11 AM
राजेंद्र तिवारी,कॉरपोरेट एडिटर,प्रभात खबर
भारत-पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बातचीत की तैयारी है. पाकिस्तानी सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज भारत आ रहे हैं और 23-24 अगस्त को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से उनकी बातचीत होगी. हमेशा की तरह इस बार भी दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग ने कश्मीरी अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक, यासीन मलिक और नईम खान को 23 अगस्त की शाम अजीज के सम्मान में होनेवाले भोज में शामिल होने का न्योता दिया है.
पिछले साल भी विदेश सचिव स्तर की वार्ता से एक दिन पहले पाक उच्चायुक्त ने कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को मशविरे के लिए आमंत्रित किया था, प्रतिक्रिया स्वरूप भारत सरकार ने वार्ता रद कर दी थी. पर, इस बार खबर है कि भारत सरकार की तरफ से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जायेगा, वार्ता तय कार्यक्रम के अनुसार होगी. यह एक समझदारी भरा कदम है; क्योंकि जब बात ही नहीं होगी तो कोई बात कैसे निकलेगी और बात नहीं निकलेगी तो राह कैसे बनेगी.
अलगाववादियों को पाकिस्तानी उच्चायोग में खुलेआम बुलाने की शुरुआत 1995 में हुई थी. मई, 1995 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति फारूक लेघारी सार्क सम्मेलन में हिस्सा लेने दिल्ली आये. उन्होंने अलगाववादी नेताओं को बातचीत के लिए पाक उच्चायोग में बुलाया. एएस दुलत ने अपनी किताब ‘कश्मीर : द वाजपेयी ईयर्स’ में लिखा है कि आइबी ने अलगाववादियों को इस बैठक में शामिल होने से रोकने की पूरी कोशिश की. नतीजा यह हुआ कि सिर्फ दो नेता पाक राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे, दो ने न आने के बहाने बना दिये, एक ने कहा कि वह बीमार हैं और इस वजह से नहीं आ सकते. एक और प्रमुख अलगाववादी नेता मौलवी अब्बास अंसारी पूर्वाह्न् 11 बजे की जगह अपराह्न् 2 बजे पहुंचे.
अंसारी ने कहा कि वे शॉपिंग के लिए गये थे और वहां रास्ता भटक गये, इसलिए समय से नहीं पहुंच सके. दुलत ने लिखा है कि इस बाबत तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का कहना था कि अलगाववादी मिल भी लेते तो क्या हो जाता. अगर वे वहां जाना चाहते हैं, जाने दीजिए. इसमें कोई बड़ी बात नहीं हैं. यहां से ही बातचीत का माहौल बनना शुरू हुआ, अलगाववादियों से भी और पाकिस्तान से भी. इससे पहले जो भी पाक उच्चायोग जाता था, उसे संदेह की नजरों से देखा जाता था. उनकी तलाशी ली जाती थी, उनके पीछे खुफिया एजेंसियों को लगा दिया जाता था और उनका पीछा किया जाता था. कई बार तो पुलिस र्दुव्‍यवहार तक करती थी. लेकिन, नरसिंह राव का कहना था कि इनको आने दीजिए, जाने दीजिए. हमें इन्हें रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. और इसके बाद से ही अलगावादियों का पाक उच्चायोग आना-जाना खुलेआम शुरू हो गया. इससे कोई नुकसान हुआ हो, ऐसा नहीं है. वास्तव में कश्मीरी अलगाववादियों के आइएसआइ से जीवंत संबंध ही नहीं हैं, बल्कि वे उसके हिसाब से ही अपनी रणनीति तय करते हैं, और इसे कोई रोक नहीं पाया है आज तक. ऐसे में उनका खुलेआम पाक उच्चायोग जाना, उनकी पाकपरस्ती को ही साबित करता है.
वाजपेयी सरकार के समय तो विपरीत परिस्थितियों में भी बातचीत का क्रम जारी रहा. कश्मीरी अलगाववादियों से लेकर कश्मीर पर नजर रखने और कश्मीर पर काम करनेवाले लोग तक मानते हैं कि वाजपेयी के कार्यकाल में कश्मीर समस्या समाधान के बहुत नजदीक पहुंच गयी थी. अगर कुछ चूकें न हुई होतीं तो डील हो जाती. यहां ध्यान देनेवाली बात यह है कि इस दौरान ही सबसे बड़े आतंकी हमले हुए, कारगिल युद्ध हुआ और संसद पर हमला हुआ. परमाणु विस्फोट भी हुए. लेकिन बातचीत का सिलसिला जारी रहा. लाहौर बस यात्र हुई, आगरा समिट हुई और अलगाववादियों के लिए बातचीत के दरवाजे लगातार खुले रखे गये. जसवंत सिंह ने अपनी किताब ‘ए कॉल टू ऑनर’ में लिखा है कि लाहौर बस का आइडिया 1998 में आया था,
जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाक प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ यूनएन जनरल असेंबली के दौरान न्यूयॉर्क में मिले थे. बातचीत में मियां साहब ने वाजपेयी जी को बताया कि वे 1982 के एशियाई खेल देखने लाहौर से अपनी कार से दिल्ली आये थे. यह बात वाजपेयी जी को जंच गयी. वाजपेयी जी ने बाद में एक बैठक में यह बात बतायी. इसके कुछ दिन बाद ही भारत ने और फिर पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किया.
इससे वाजपेयी को अपनी पहल के लिए गुंजाइश निकालने में मदद मिली. उस समय गृहमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माय कंट्री, माय लाइफ’ में लिखा है कि अपने को शक्ति का पुजारी साबित करने के बाद वाजपेयी ने दुनिया को बताया कि वह शांति के पक्षधर भी हैं और उतना ही जितना कि वे शक्ति के पुजारी हैं. मियां साहब ने 4 फरवरी, 1998 को एक इंटरव्यू के जरिये वाजपेयी को आमंत्रित किया और वाजपेयी 20 फरवरी को बस से पाकिस्तान पहुंच गये.
हालांकि पहले वाजपेयी की योजना वाघा से सीमा पार कर मियां साहब से मिल कर वापस लौटने की थी, लेकिन जब वाजपेयी सीमा के उस तरफ पहुंचे तो मियां साहब ने वाजपेयी जी से कहा- दर तक आये हो, घर नहीं आओगे? और वाजपेयी लाहौर गये. इसके बाद बिल्कुल विपरीत परिदृश्य में आगरा समिट के लिए मुशर्रफ को न्योता गया. इस दौरान कभी केसी पंत, कभी आडवाणी जी तो कभी किसी और स्तर पर अलगाववादियों के लिए बातचीत के रास्ते वाजपेयी जी ने खुले ही रखे.
कहने का अर्थ यह है कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत या विरोधी हों, बात ही राह बनाती है. और इसलिए अलगाववादियों को पाकिस्तानी उच्चायोग में बुलाये जाने को इश्यू न बना कर, 23-24 अगस्त की वार्ता के लिए केंद्र सरकार द्वारा सकारात्मक रवैया अपनाना नये आयामों की ओर संकेत करता है, जिसका स्वागत ही किया जाना चाहिए. बहुत संभव है कि अगला कदम समिट के रूप में सामने आये.
और अंत में..
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मदद करनी हो उसकी / यार को ढाड़स बंधाना हो / बहुत देरीना रस्तों पर / किसी से मिलने जाना हो / हमेशा देर कर देता हूं मैं..
बदलते मौसमों की सैर में / दिल को लगाना हो / किसी को याद रखना हो / किसी को भूल जाना हो / हमेशा देर कर देता हूं मैं..
किसी को मौत से पहले / किसी गम से बचाना हो / हकीकत और थी कुछ / जाके ये उसको बताना हो / हमेशा देर कर देता हूं मैं..

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