सत्ता की मनमर्जी
अधिकार-सजग नागरिक के लिए रास्ते दो ही बचे हैं. सत्तासीन के विकास विषयक विचार से सहमति जताइए और आंख मूंद कर उसमें भागीदारी कीजिए या फिर विकास के विचार को न्यायसंगत बनाने के लिए लड़ाई लड़िए और सत्तासीन के हाथों दंड पाने के लिए तैयार रहिए, भले ही आप लड़ाई संविधान-सम्मत तरीके से लड़ रहे […]
अधिकार-सजग नागरिक के लिए रास्ते दो ही बचे हैं. सत्तासीन के विकास विषयक विचार से सहमति जताइए और आंख मूंद कर उसमें भागीदारी कीजिए या फिर विकास के विचार को न्यायसंगत बनाने के लिए लड़ाई लड़िए और सत्तासीन के हाथों दंड पाने के लिए तैयार रहिए, भले ही आप लड़ाई संविधान-सम्मत तरीके से लड़ रहे हों.
प्राथमिक शिक्षा में सुधार की नीयत से इलाहाबाद हाइकोर्ट में याचिका डालनेवाले शिक्षक शिव कुमार पाठक को बर्खास्त कर यूपी के शिक्षा विभाग ने कुछ ऐसा ही संदेश दिया है. जिला सुल्तानपुर के लम्भुआ में स्कूल में तैनात इस शिक्षक की याचिका पर ही इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि सरकारी खजाने से वेतन पानेवाला हर व्यक्ति, चाहे वह नौकरशाह हो, नेता हो या न्यायाधीश, अपने बच्चे को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में भेजे. कोर्ट ने ऐसा न करने पर दंड की भी व्यवस्था दी.
अदालत का यह फैसला यूपी के सत्तावानों को अपने स्वार्थो पर एक आघात की तरह लगा. शिव कुमार का यह कहना सही जान पड़ता है कि अनुपस्थिति का आरोप मढ़ कर उन्हें बर्खास्त करना असल में बदले की कार्रवाई है.
कोई शिक्षक काम से अनुपस्थित हुए बिना अदालती लड़ाई कैसे लड़ सकता है? और काम से कुछ दिन अनुपस्थित रहने का अर्थ यह कत्तई नहीं होता कि आपको सीधे-सीधे पदमुक्त ही कर दिया जाये. शिव कुमार की याचिका निजी लाभ से प्रेरित नहीं थी, यह शिक्षकों की नियुक्ति-प्रक्रिया की खामियों पर केंद्रित थी. इसमें प्रदेश में प्राथमिक स्तर की शिक्षा में व्याप्त खामियों की तरफ एक विशेष कोण से ध्यान दिलाया गया था.
इन खामियों की वजह से ही शिक्षकों की नियुक्ति अदालती मुकदमों का विषय बनती हैं, स्कूल बरसों तक पर्याप्त शिक्षक-संख्या के बिना चलते रहते हैं, शिक्षा का स्तर गिरता जाता है और आखिर में एक ऐसी स्थिति आती है, जब स्कूल पढ़ने-सीखने के बजाय एक ऐसी जगह में तबदील हो जाते हैं, जहां सरकार की तरफ से गरीब बच्चों को भोजन, वस्त्र, किताब, साइकिल जैसी कुछ चीजें बतौर राहत सौंपी जाने लगती है.
जनहित की लड़ाई लड़ रहे शिक्षक को बर्खास्त करके यूपी सरकार ने याचिका में दर्ज शिकायत को ही पुष्ट किया है. याचिका में प्रकारांतर से यही तो कहा गया था कि शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया राजसत्ता की मनमर्जी के अधीन है. सरकार ने याचिकाकर्ता को बर्खास्त कर अपनी इस मनमर्जी का एक और सबूत दिया है. कहीं शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मामले में गैरबराबरी बनाये रखने में ही उनकी स्वार्थसिद्धि तो नहीं!