घातक है पड़ोस की राजनीति की अनदेखी

श्रीलंका चुनाव की बात श्रीलंका तक ही सीमित नहीं. वर्षो के खून-खराबे वाले गृहयुद्ध के बाद सुलह की जरूरत सिर्फ श्रीलंका की ही नहीं, भारत में जम्मू-कश्मीर हो या उत्तर-पूर्वी सीमांत, हम खुद इस समस्या का सामना कर रहे हैं. हाल के दिनों में हमारे समाचार पत्रों की सुर्खियों में भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 24, 2015 9:09 AM
श्रीलंका चुनाव की बात श्रीलंका तक ही सीमित नहीं. वर्षो के खून-खराबे वाले गृहयुद्ध के बाद सुलह की जरूरत सिर्फ श्रीलंका की ही नहीं, भारत में जम्मू-कश्मीर हो या उत्तर-पूर्वी सीमांत, हम खुद इस समस्या का सामना कर रहे हैं.
हाल के दिनों में हमारे समाचार पत्रों की सुर्खियों में भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता का मुद्दा कुछ इस तरह हावी रहा है कि अधिकतर पाठकों का ध्यान पड़ोसी देश श्रीलंका में प्रधानमंत्री पद का चुनाव निर्विघ्न संपन्न होनेवाली बड़ी उपलब्धि की तरफ नहीं जा सका. अब आप यह कह सकते हैं कि यह तो उस देश का आंतरिक मामला था, इसमें हमारी रुचि नाजायज ही समझी जा सकती है. इसके अलावा यह मीन-मेख भी निकाली जा सकती है कि आखिर श्रीलंका की राजनीति में राष्ट्रपति का पद ही महत्वपूर्ण होता है, अत: प्रधानमंत्री के चुनाव को तवोज्जो नहीं दी जा सकती. मगर मेरी राय में इस तरह की गलतफहमी हमारे राष्ट्रहित के लिए घातक हो सकती है.
श्रीलंका में कई दशक तक चले गृहयुद्ध ने भारत को भी बुरी तरह लहूलुहान किया है. न केवल एक पूर्व प्रधानमंत्री की जान लिट्टे के दहशतगर्दियों ने ली, बल्कि श्रीलंका में तैनात शांतिरक्षक सैनिक दस्ते के हजारों सैनिकों ने अपने प्राणों की आहूति इस मित्र राष्ट्र में हिंसक उपद्रव के शमन के लिए दी और बड़ी संख्या में अपंग हुए. आज भले ही हिंसा का लावा बह कर भारत में नहीं पहुंच रहा है, पर इस ओर बिल्कुल बेफिक्र होकर, आंख-कान बंद कर बैठे रहना नादानी है. श्रीलंका की राजनीति का उतार-चढ़ाव अनिवार्यत: तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीतिक पार्टियों की रस्साकशी को प्रभावित करता है और जिसका जबर्दस्त असर केंद्र की राजनीति पर पड़ता है.

यह सच है इस समय केंद्र में राज कर रहे नरेंद्र मोदी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त है और वह फिलहाल मनमोहन सिंह और यूपीए सरकार की तरह डीएमके की बैसाखी पर निर्भर नहीं हैं, परंतु वह भी अम्मा जयललिता की भौंहें चढ़ने को नजरअंदाज नहीं कर सकते. किसी भी महत्वपूर्ण विधेयक को पारित कराने के लिए एनडीए को राज्यसभा में उनके समर्थन की जरूरत है और आनेवाले दो वर्षो तक बनी रहेगी. बिहार के चुनावी नतीजे आने के बाद यह चुनौती और भी विकट हो सकती है. इसके अलावा आये दिन तमिल मछुआरों पर श्रीलंका की नौसेना की गोलीबारी या इन निहत्थे भारतीय मछुआरों के बंदी बनाये जाने से राजनयिक संकट उत्पन्न होता रहता है.

पाठकों को यह याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि श्रीलंका की भूराजनीतिक स्थिति ऐसी है कि हिंद महासागर में भारत के संवेदनशील सामरिक हितों को देखते हुए हम श्रीलंका की आंतरिक राजनीति से जुड़ी किसी भी घटना को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. श्रीलंका में चीन की मौजूदगी हो या बरास्ता श्रीलंका, सिंगापुर से मालदीव की तरफ जानेवाले समुद्री तस्कर या कट्टरपंथी इसलामी तत्व, इन सभी पर अंकुश लगाने के लिए भारत को श्रीलंका की मित्र सरकार के समर्थन की जरूरत है.
अब मूल विषय की ओर लौटें. यह सोचना बचपना है कि श्रीलंका के प्रधानमंत्री का चुनाव, खासकर इस वक्त, वहां के राष्ट्रपति के चुनाव से कम महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रधानमंत्री पद के दावेदार-उम्मीदवार महिंदा राजपक्षे थे, जिन्हें सत्तारूढ़ राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति चुनाव में हराया था. यह जगजाहिर है कि महिंदा राजपक्षे उग्र न सही, पर कट्टर सिंघल समर्थक हैं और उनके शासनकाल में लिट्टे के दमन के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन के गंभीर आरोप उन पर लगते रहे हैं. भारत ने अपनी तरफ से यह पूरी कोशिश की कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमेरिका और ब्रिटेन इस आधार पर उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं कर सके, पर इस राजनयिक मदद का कोई आभार वह नहीं मानते. चुनाव हारने के बाद उन्होंने सीधे-सीधे भारत पर यह लांछन लगाया कि उसकी गुप्तचर सेवाओं ने उन्हें हराने में उनके विपक्षी की मदद की थी. यह आक्षेप अपने आप में बेहद धूर्ततापूर्ण है और कपटी भी. पर इससे भी बड़ी बात यह है कि भारत सरकार को यह वचन देने के बाद भी कि उत्तरी जाफना प्रांत में शोषित, पीड़ित, आहत तमिल आबादी के जख्मों में मरहम लगाने के काम में देरी नहीं की जायेगी और उन्हें जल्द से जल्द स्वायत्ता प्रदान की जायेगी, वह जब तक सरकार में थे, टाल-मटोल करते रहे थे.

उनका दोबारा हारना इस बात का सबूत है कि अल्पसंख्यक तमिल ही नहीं, बहुसंख्यक सिंघल बौद्ध धर्म को माननेवाले भी उन्हें अपना संरक्षक या हितैषी नहीं मानते. यह बात बिना शक व सुबहे के कही जा सकती है कि आज श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी, चाहे वह किसी भी धर्म या किसी भी नस्ल की हो, शांति और सुलह चाहती है, मुठभेड़ नहीं. अंत में एक और बात साफ करने की जरूरत है. महिंदा राजपक्षे की हमेशा यही कोशिश रही है कि वह खूंखार लिट्टे को पराजित करने का पूरा श्रेय अकेले ले लें. इसीलिए लड़ाई के मोर्चे पर तैनात और वास्तव में सैनिक जीत के लिए जिम्मेवार जनरल फॉनसेका को उन्होंने अपने लिए कभी भी चुनावी चुनौती नहीं बनने दिया. इसके लिए उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें जेल भेज दिया गया. राजपक्षे के दुर्भाग्य से उनकी इन हरकतों ने करिश्माई फॉनसेका को और भी अधिक लोकप्रिय बना दिया. श्रीलंका में इस बात को लेकर कम असंतोष और आक्रोश नहीं कि राजपक्षे जनतांत्रिक श्रीलंका को कुनबापरस्त, भ्रष्ट जागीरदारी में बदलते नजर आ रहे थे. विडंबना यह है कि वर्तमान भारत के बारे में भी वंशवादी जनतंत्र और राजनीतिक पार्टियों द्वारा पोषित संरक्षित भाई-भतीजावादी भ्रष्टाचार को रेखांकित किया जाता है. हम यह बात साफ करना चाहते हैं कि हमारा कोई इरादा अपने को पाक-साफ और पड़ोसी को दागदार दिखलाने का नहीं है. हमारा एक मकसद श्रीलंका के दर्पण में अपने चेहरे के मुंहासे-मस्से देखने का प्रयासभर है.

श्रीलंका चुनाव की बात श्रीलंका तक ही सीमित नहीं. वर्षो के खून-खराबे वाले गृहयुद्ध के बाद सुलह की जरूरत सिर्फ श्रीलंका की ही नहीं, भारत में जम्मू-कश्मीर हो या उत्तर-पूर्वी सीमांत, हम खुद इस समस्या का सामना कर रहे हैं. पड़ोसी देश नेपाल में संविधान निर्माण की जो प्रक्रिया लगभग आधे दशक से अधिक समय से अधर में लटकी है, वह भी कहीं ना कहीं दक्षिण एशिया के इस संक्रामक मर्ज का लक्षण है. जन-जातीय विविधता, सांप्रदायिक बहुलता-ईसाई, बौद्ध, हिंदू, इसलामी और भाषाई वैविध्य सब मिल कर आंतरिक राजनीति को विस्फोटक बनाते हैं. क्षेत्रीय असंतुलित विकास और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का सामंती कबिलाई संस्कार जनतंत्र की जड़ों को सर्वत्र कुचलता है. इसके बारे में सतर्क रहने की जरूरत है और घर या बाहर किसी भी चुनाव का अवमूल्यन विश्लेषकों को नहीं करना चाहिए.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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