कहने को तो झारखंड प्राकृतिक संपदाओं से भरा-पूरा राज्य कहा जाता है, लेकिन यह बहुत बड़ी विडंबना ही है कि इस राज्य में जंगल सिर्फ आठ फीसदी ही बचा है. इतना ही नहीं, इसे राज्य को खनिज पदार्थो से भी परिपूर्ण बताया जाता है, लेकिन यहां के आदिवासी सबसे दीन-हीन और गरीब हैं, जिन्हें भरपेट दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं है.
सवाल यह भी पैदा होता है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? वन विभाग का काम जंगलों का संरक्षण करना ही है. फिर भी वनों की कटाई कैसे हो गयी? सिर्फ आंकड़ा पेश करने भर से ही काम तो नहीं चलेगा? संरक्षण का मतलब ही होता है, जंगलों की हर तरह से रक्षा करना. इन तमाम कामों की जिम्मेदारी वन विभाग की है.
इस विभाग में मोटी तनख्वाह और ढेरों सरकारी सुविधाएं प्राप्त करनेवालें कर्मचारियों और अधिकारियों की फौज काम कर रही है. फिर भी आठ फीसदी वनों का बचा रहना अपने आप में एक सवाल पैदा करता है. एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते जंगलों और आदिवासियों के बीच जाना हमारा काम है, लेकिन इन दोनों की दुर्दशा देखने-समझने के बावजूद हमारे पास इतनी हैसियत नहीं कि हम उनके लिए कुछ कर सकें. इस बीच हमने यह भी देखा है कि जो अधिकारी भारतीय वन सेवा के पदाधिकारी के रूप में रांची में पदस्थापित है, वह सक्षम होने के बावजूद वनों के लिए कुछ करने में असक्षम साबित हो रहा है, जबकि उसे विभाग के द्वारा इसी काम के लिए पदोन्नति देकर दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर दिया जाता ह. कुछ साल बाद वही व्यक्ति दोबारा रांची में आकर यह बयान देता है कि राज्य में सिर्फ आठ फीसदी ही जंगल बचे हैं. सरकार को इस पर ध्यान देना ही होगा.
शैलजा मिश्र, रांची