तीसरी कसम जैसी एक कसम मेरी भी

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार वे काम, जो पुरुषों के माने जाते रहे हैं, अगर उन्हें औरतें करने लगें तो आज भी लोग आश्चर्य से देखते हैं. उन्हें लगता है कि ये औरतें हर जगह घुसी चली आ रही हैं! और इस तरह की मानसिकता देश की राजधानी में भी मौजूद है. कार ड्राइव करना भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 24, 2015 11:04 PM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

वे काम, जो पुरुषों के माने जाते रहे हैं, अगर उन्हें औरतें करने लगें तो आज भी लोग आश्चर्य से देखते हैं. उन्हें लगता है कि ये औरतें हर जगह घुसी चली आ रही हैं!

और इस तरह की मानसिकता देश की राजधानी में भी मौजूद है. कार ड्राइव करना भी ऐसे कामों में एक है.बात कुछ साल पहले की है. दिल्ली में एक दिन मेरी कार प्रगति मैदान से आगे निजामुद्दीन जानेवाली रेड लाइट पर खड़ी थी. साथ में मेरा कॉलेज में पढ़नेवाला बेटा भी था. सामने से एक सजी-सजाई घोड़ी ठुमकती हुई गुजरी. बेचारी किसी दूल्हे के पास जा रही होगी.

ग्रीन लाइट हो गयी थी, मगर घोड़ी और उसके मालिक की चाल में जरा सी भी तेजी नहीं आयी और फिर से रेड लाइट हो गयी. चालकों के चेहरे पर खिसियाहट साफ देखी जा सकती थी. तभी एक बाइक उसी तरफ आकर रुकी, जिधर मैं ड्राइविंग सीट पर बैठी थी. बाइक पर दो लड़के थे.

अचानक मुङो सुनाई दिया- अरे बच बेटा, आंटी जी गाड़ी चला रही हैं, अभी पहिए के नीचे दे देंगी. मैंने यह सोच कर शीशा बंद कर दिया, कि उनकी कोई बात न मुङो सुनाई दे, न बेटे के कानों तक पहुंचे.

क्या पता मेरा बेटा नीचे उतर कर उनसे भिड़ जाये. तभी बाइक वाले ने बाइक कुछ आगे बढ़ाई, जिससे विंड स्क्रीन की तरफ देखते हुए भी मैं उसे देख सकूं. फिर उसने हेलमेट उतारा और आंख मारी.

बाप रे. मैंने कनखियों से अपने लड़के की तरफ देखा. खैरियत थी कि वह दूसरी तरफ देख रहा था. ग्रीन लाइट होते ही मैंने जल्दी से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं उनसे दूर निकल जाना चाहती थी, पर वे अकसर मेरी गाड़ी के सामने आ रहे थे.

मुङो यह सोच कर हंसी भी आ रही थी कि उसे आंख मारने के लिए कितनी जुगत भिड़ानी पड़ी. बाइक आगे बढ़ानी पड़ी, हेलमेट उतारना पड़ा. खैर, जल्द ही मेरे घर का मोड़ आ गया और मैं उधर मुड़ गयी.

यह एक घटना है, एकमात्र नहीं. सऊदी अरब में तो औरतें गाड़ी चला ही नहीं सकतीं. अपने देश में ऐसी कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन ड्राइव करती औरतों को न जाने क्या-क्या सुनना पड़ता है.

‘चलाना आता नहीं, निकल पड़ीं सड़क पर’. ‘अरे बहन जी, घर में रोटी पकाओ न, किसी में दे मारोगी तो लेने के देने पड़ जाएंगे’.

इतना ही नहीं, पीछे से आते लोग कार चलाती महिलाओं पर एक नजर डालना अपना परम कर्तव्य समझते हैं. यह तो हुई महानगर की बात.

एक बार मैं हरियाणा के एक गांव में बहन के घर गयी थी.

मुङो कार चलाते देख वहां ट्रैक्टर पर जाते, विक्रम पर सवार, साइकिल चलाते, खेतों की तरफ जाते लोग, सब ऐसे देख रहे थे, मानो उनके बीच कोई एलियन आ गया. तालियां पीट-पीट चिल्ला रहे थे- देखिओ, देखिओ, लुगाई गाड़ी चला रही है.

एक ट्रैक्टर वाले ने तो मुङो देखने के चक्कर में गाड़ी पर ट्रैक्टर चढ़ा ही दिया होता. साथ में भाभी बैठी थीं. उन्होंने हंसते हुए कहा था- तुङो तो यह यात्र हमेशा याद रहेगी.

फ्री की कॉमेडी. हां, कॉमेडी एक ट्रेजडी बनने से रह गयी. उस दिन मैंने तीसरी कसम के राजकपूर की तरह पहली कसम खायी थी कि फिर कभी यहां ड्राइव करके नहीं आऊंगी.

पर दिल्ली, जहां मैं रहती हूं, रोज किसी-न-किसी काम से निकलती हूं, वहां तो बाहर निकलना बंद नहीं कर सकती.

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