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बाजार में बैचैनी
भारतीय शेयर बाजार में सोमवार को आयी 2008 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट के कारण सात लाख करोड़ रुपये निकल जाने की आशंका जतायी जा रही है.रुपये की कीमत में भारी कमी ने इस उथल-पुथल को और गंभीर बना दिया है. इस गिरावट का तात्कालिक कारण चीन समेत समूचे एशियाई शेयर बाजार में आया […]
भारतीय शेयर बाजार में सोमवार को आयी 2008 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट के कारण सात लाख करोड़ रुपये निकल जाने की आशंका जतायी जा रही है.रुपये की कीमत में भारी कमी ने इस उथल-पुथल को और गंभीर बना दिया है. इस गिरावट का तात्कालिक कारण चीन समेत समूचे एशियाई शेयर बाजार में आया तीन सालों का सबसे बड़ा झटका है.
कच्चे तेल के मूल्य में कमी, डॉलर की मजबूती और अन्य मुद्राओं में कमजोरी तथा अगस्त के शुरू से विदेशी निवेशकों द्वारा पैसा निकालने की वजहों ने इस परिघटना में नकारात्मक भूमिका निभायी है. हालांकि भारत समेत दुनिया के प्रमुख शेयर बाजारों में जुलाई से ही गिरावट का एक दौर जारी है और आगामी दिनों में इसमें बहुत उल्लेखनीय सुधार की गुंजाइश नजर नहीं आ रही है.
चीनी अर्थव्यवस्था में मंदी, यूरो संकट, रूस पर पाबंदी, अरब में अशांति आदि कारकों से भारतीय बाजार भी अछूता नहीं रह सकता है.
भले ही वित्त मंत्रलय यह आश्वासन दे रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था इस उथल-पुथल का सामना करने के लिए सक्षम है, लेकिन जरूरत पड़ने पर 380 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर निकालने के रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बयान से स्पष्ट है कि यह गिरावट हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन कर सामने आयी है.उन्होंने यह भी संकेत दिया है कि ब्याज दरों में कटौती की फिलहाल संभावना नहीं है. इसके साथ रुपये के मूल्य में कमी के कारण महंगाई पर रोकथाम मुश्किल होगा.
क्रय शक्ति के निरंतर क्षरण, सामाजिक कल्याण के आवंटन में कटौती और आर्थिक सुधार की सुविचारित नीति का अभाव आदि ऐसे अन्य तत्व हैं, जो अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर धकेल सकते हैं.
अफसोस की बात है कि वैश्विक स्तर पर मिल रहे नकारात्मक संकेतों के बावजूद सरकार कोई ठोस पहल करने में असफल रही है. उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 2008 की मंदी के बाद आयी बेहतरी का बड़ा कारण सरकारी परिसंपत्तियों और निवेशों की बिक्री तथा कॉरपोरेट सेक्टर द्वारा लिया भारी कर्ज था.
अर्थतंत्र की जमीनी हकीकत को घोषणाओं, बेल-आउट और आंकड़ों से ढंकने की कोशिशों के नतीजे हमारे सामने हैं.मौजूदा सरकार ने निर्यात-आधारित औद्योगिक विकास को तरजीह देने के क्रम में मांग-आपूर्ति और आय-व्यय के घरेलू पहलुओं को कुछ हद तक नजरअंदाज किया है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार दूरदर्शितापूर्ण फैसलों के साथ इस आर्थिक चुनौती का सामना कर सकेगी.
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