जरूरी है मांग उत्पन्न करना

डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री भाजपा सरकार के सत्ता में आने के साथ बाजार में मंदी प्रवेश कर गयी थी. दुकानदारों का कहना है कि बिक्री 25 प्रतिशत तक गिरी है. कालेधन पर नियंत्रण के प्रयासों से नंबर दो के पैसे से मांग उत्पन्न नहीं हो रही. महंगाई रोकने के लिए सरकार ने अपने खर्चो में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 24, 2015 11:11 PM
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
भाजपा सरकार के सत्ता में आने के साथ बाजार में मंदी प्रवेश कर गयी थी. दुकानदारों का कहना है कि बिक्री 25 प्रतिशत तक गिरी है. कालेधन पर नियंत्रण के प्रयासों से नंबर दो के पैसे से मांग उत्पन्न नहीं हो रही.
महंगाई रोकने के लिए सरकार ने अपने खर्चो में कटौती की है. इससे वित्तीय घाटा तो नियंत्रण में आ गया है, पर बाजार में नंबर एक की मांग में कटौती हुई है. इस तरह नंबर एक और दो, दोनों की मांग में कमी से दुकानदारों का माल नहीं बिक रहा है.
सरकार की मान्यता है कि आर्थिक विकास के लिए वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करना चाहिए. इससे महंगाई काबू में आयेगी, निवेश आकर्षित होंगे और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.
साधारण समझ बताती है कि सरकार जितनी रकम टैक्स से वसूलती है, उसे उतना ही खर्च करना चाहिए. इस स्थिति को ‘बैलेंस्ड’ अथवा संतुलित बजट कहा जाता है. ऐसे में वित्तीय घाटा शून्य रहता है. पर ऐसी पॉलिसी से सरकार की जरूरी निवेश करने की क्षमता सीमित हो जाती है.
संभव है कि सरकार के पास हाइवे बनाने या रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रम चलाने के लिए पर्याप्त आय न हो. मसलन सरकार की आय 50 अरब और पूर्व में निर्धारित खर्च भी 50 अरब हों, तो सरकार पांच अरब के नोट छाप कर हाइवे बना सकती है. ऐसे नोट छाप कर खर्च करने को वित्तीय घाटा कहा जाता है.
साधारणत: वित्तीय घाटे को लेकर मान्यता है कि यह कुशासन का संकेत है. नोट छाप कर खर्च करने की लत लगे, तो सरकार फिजूलखर्ची के लिए नोट छापने लगती है. इस तरह के कुशासन से निजी निवेशकों का अर्थव्यवस्था से भरोसा उठता है और वे दूसरे देशों में पलायन कर जाते हैं. यह मान्यता प्रसिद्ध अथर्शास्त्री कीन्स के विचार के विपरीत है.
बात तीस के दशक की है. उस समय अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर घोर मंदी छायी थी. राष्ट्रपति ट्रूमैन ने उस समय बैलेंस्ड बजट नीति को अपना रखा था. मंदी के कारण सरकार की टैक्स से आय घट रही थी और वह सरकारी खर्च में कटौती कर रही थी. इससे अर्थव्यवस्था में ऊर्जा का स्नेत नहीं बच रहा था.
ऐसे में कीन्स ने राष्ट्रपति ट्रूमैन को पत्र लिख कर सुझाव दिया था कि वे बैलेंस्ड बजट को छोड़, नोट छापें, सरकारी खर्च बढ़ाएं, बाजार में मांग बढ़ाएं. राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कीन्स के सुझाव को लागू किया. उन्होंने नोट छाप कर सरकारी खर्च बढ़ाये. इससे बाजार में मांग बढ़ी और अमेरिकी अर्थव्यवस्था चल निकली.
इस तरह वित्तीय घाटे को लेकर दो परस्पर विरोधी चिंतन उपलब्ध हैं. इस विवाद को नोबेल अर्थशास्त्री एडमण्ड फेलेप्स ने सुलझाने का प्रयास किया है. उन्होंने बताया कि कीन्स का चिंतन अल्पसमय के लिए कारगर हो सकता है, दीर्घकाल में नहीं. स्पष्ट किया कि सरकारी खर्च का रोजगार एवं उत्पादन पर सुप्रभाव पड़ना जरूरी नहीं है.
जब सरकार नोट छाप कर खर्च करती है, तब तत्काल बाजार में मांग बढ़ती है, जैसे हाइवे बनाने के लिए गिट्टी, तारकोल और श्रम की मांग बढ़ती है. यदि गिट्टी और तारकोल के मूल्य पूर्ववत रहे, तो बढ़े सरकारी खर्च का सुप्रभाव पड़ेगा. परंतु यदि व्यापारियों एवं श्रमिकों ने अनुमान लगा लिया कि सरकार की इस नीति के कारण महंगाई बढ़ेगी और माल का दाम बढ़ा दिया तो सरकारी खर्च में वृद्धि निष्प्रभावी हो जाती है.
मान लें कि वर्तमान में सरकारी खर्च 50 अरब रुपया है और श्रमिक दिहाड़ी 100 प्रतिदिन है. सरकार ने घोषणा की कि वह पांच अरब के नोट छाप कर हाइवे बनायेगी, जिसमें श्रमिकों की जरूरत होगी. ऐसे में यदि दिहाड़ी पूर्ववत 100 रहती है, तो श्रम की मांग बढ़ेगी और नये रोजगार बनेंगे.
पर यदि श्रमिकों को आभास हो गया कि सरकार 10 फीसदी वित्तीय घाटा बना रही है, जिससे बाजार में शीघ्र ही जरूरी चीजों के मूल्यों में वृद्धि होगी; तो वे 100 के स्थान पर 110 दिहाड़ी मांगेंगे. इससे वित्तीय घाटे की पॉलिसी निष्प्रभावी हो जायेगी. 50 अरब के खर्च से 100 की दिहाड़ी पर जितने रोजगार पूर्व में बन रहे थे, उतने ही 55 अरब के खर्च से 110 की दिहाड़ी पर बनेंगे.
महंगाई बढ़ने का एक और कारण है. मान लें पहले देश की आय 50 रुपये प्रतिवर्ष थी, आटे का दाम 10 था और अर्थव्यवस्था में 5 किलो आटे का उत्पादन हो रहा था. इस स्थिति में सरकार ने नोट छापे, वित्तीय घाटा बढ़ाया.
लेकिन यदि आटे व गेहूं का मूल्य बढ़ गया, तो रुपये की कीमत में गिरावट आयेगी. एक किलो गेहूं का दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में पूर्ववत रहेगा, इससे भारतीय मुद्रा का मूल्य दूसरी मुद्राओं के सामने गिरेगा, आयातित माल का दाम बढ़ेगा और वित्तीय घाटे की वृद्धि से होनेवाला लाभ आंशिक रूप से निरस्त हो जायेगा. स्पष्ट है कि वित्तीय घाटे से लाभ केवल अल्प समय में ही हो सकता है.
बढ़ती महंगाई एवं मुद्रा का अवमूल्यन होने से लंबे समय में अर्थव्यवस्था की गाड़ी पुन: पूर्व की धीमी गति से चलने लगती है. इसलिए सबसे जरूरी है मांग उत्पन्न करना, सरकारी खर्च की गुणवत्ता में सुधार करना.

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