कश्मीर पर बात करने से क्यों घबराएं!
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया पिछले कुछ दिनों से भारत और पाकिस्तान में एक तरह के युद्ध, और टेलीविजन चैनलों पर गरमागरम बहसों का दौर चल रहा था. ऐसे में कभी-कभी टेलीविजन चैनलों पर विेषक बनना बहुत कठिन प्रतीत होता है. यह सच है कि यह कोई वास्तविक युद्ध नहीं था, क्योंकि पोखरण […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
पिछले कुछ दिनों से भारत और पाकिस्तान में एक तरह के युद्ध, और टेलीविजन चैनलों पर गरमागरम बहसों का दौर चल रहा था. ऐसे में कभी-कभी टेलीविजन चैनलों पर विेषक बनना बहुत कठिन प्रतीत होता है.
यह सच है कि यह कोई वास्तविक युद्ध नहीं था, क्योंकि पोखरण और चगाई के अविवेकपूर्ण विस्फोटों के बाद हममें से कोई भी युद्ध में उतरना गवारा नहीं कर सकता. युद्ध से मेरा मतलब उस बचकाने वाक्युद्ध से है, जो इस मुद्दे पर केंद्रित था कि हम पाकिस्तान से वार्ता करें अथवा नहीं.
मेरे लिए यह समझ पाना कठिन है कि क्यों हम आज के इस युग में भी लोगों को मिलने और वार्ता करने से रोक रहे हैं, जब वे जो भी संवाद करना चाहें, उसे स्काइप, टेलीफोन, इमेल और अन्य माध्यमों से कर सकते हैं. किंतु, शायद मैं अंतरराष्ट्रीय कूटनय की बारीकियां नहीं समझता; जो मुङो बेवकूफी और हठधर्मिता से भरा लगता है, शायद वास्तव में वह चाणक्य जैसी कोई दूरंदेशीभरी चाल हो?
बहरहाल, मैं जो कुछ कह रहा था, उसका लुब्बेलुबाब यह है कि ऐसे वक्त में, किसी भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति के लिए टीवी पर विेषक बनना आसान नहीं होता.
मेरे लिए यह संभव नहीं कि मैं स्टूडियो में बैठे अधिकतर लोगों की तरह बड़ी आसानी से पार्टी अथवा राष्ट्रीय मतधारा में बह जाऊं. मेरे लिए तो तथ्य और संदर्भ ही अहम हैं. एक लंबे वक्त तक मैं भी अंध-राष्ट्रीयता का शिकार रहा, पर जैसे-जैसे व्यक्ति अध्ययन और संसार का सामना करता है, उसमें परिपक्वता आती जाती है.
किसी के लिए भी क्षेत्रीय राष्ट्रीयतावाद का अर्थ लेनी-देनी की बराबरी ही होता है, जिसके मायने यह हैं कि एक की हार में ही दूसरे की जीत होती है तथा दूसरे को कोई भी फायदा यकीनन पहले को घाटा पहुंचा कर ही मिलता है.
भारत में हमारी राष्ट्रीयता की प्रकृति क्या है? जाहिर तौर पर यह यह पकिस्तान-विरोधी और चीन-विरोधी है. इसमें किसी भी बारीक हेरफेर अथवा किंतु-परंतु की कोई भी गुंजाइश नहीं है. हमें अपनी इस राष्ट्रीयता का पूर्ण समर्थक होना होगा वरना, हमें यदि पूर्ण शत्रु के रूप में नहीं, तो कम-से-कम एक अवज्ञाकारी के रूप में तो जरूर ही देखा जायेगा.
वैसी स्थिति में, भले ही भारत को इससे कोई लाभ नहीं मिल रहा हो (जिस तरह सरताज को हुर्रियत के कट्टरवादियों से नहीं मिलने देने से भारत को कोई फायदा नहीं मिल रहा है), हमें हर हाल में पाकिस्तान-विरोधी होना ही है!
इस भय से अपने ही नागरिकों को पकड़ कर, कि वे दुश्मन से बातें कर लेंगे, वस्तुत: हम उस भारत का कद घटाते हैं, जिसके बारे में हम यह बताते नहीं थकते कि वह संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. इसी तरह, जब हम कश्मीर के बारे में बातें करने से भागते हैं, तब हम वास्तव में भारत की गरिमा ही गिराते हैं.
हम कश्मीर के विषय में बातें करने से क्यों घबराएं? बाहरी दुनिया को तो इससे यही लगता है कि चूंकि कश्मीर के बारे में हमारे मत में दम नहीं है, इसलिए ही उस पर बातें करने में हमें आत्मविश्वास महसूस नहीं होता.आज से 40 साल पहले संपन्न शिमला समझौते ने कश्मीर को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दे से एक द्विपक्षीय मुद्दे में बदल दिया और अब हमारी सरकार इसके द्विपक्षीय पहलुओं को भी नकार रही है.
अपने इन कृत्यों से हम खुद को एक आत्मविश्वासी गणतंत्र के रूप में प्रदर्शित नहीं करते. यह तथ्य कितने भी दुराग्रही विेषक के लिए बिल्कुल साफ होना चाहिए; मगर फिर भी, इसे टेलीविजन पर कहना अचंभित प्रतिक्रियाओं तथा राष्ट्रीयता-विरोधी होने के आरोपों को न्योता देना ही होता है.
किसी भी मामले में यदि आप कोई खास मत रखते हैं, तो आप पर एक ठप्पा लगाने में भी देर नहीं की जाती है.यह हमारे इस यकीन से पैदा होता है कि हम में से हरएक किसी-न-किसी विचारधारा से प्रभावित होता है, जिसकी व्याख्या किसी तर्क या विवेक से नहीं की जा सकती. हम वामपंथी, उदारवादी अथवा दक्षिणपंथी जैसी शब्दावली का उनके मायनों पर वाजिब गौर किये बिना ही लापरवाही से इस्तेमाल कर देते हैं.
मैं समझता हूं कि इसकी एक वजह तो यह होती है कि हमने नफरत पर आधारित कोटियां निर्धारित कर रखी हैं. जैसे हिंदुत्व को ही लें, जो हिंदुओं को मुसलिमों तथा ईसाइयों के विरुद्ध क्रोध और कड़वाहट के सिवाय कोई भी सकारात्मक चीज नहीं देता. जिनके मस्तिष्क में ऐसी नफरत भरी है, वे अपनी मानसिकता तथा भावनाओं को सामने पड़े मुद्दे से विलग नहीं कर पाते. पर हम सब अपनी आंखें मूंद उनकी तरफदारी में क्यों लग जाएं? मैं तो ऐसा करने में खुद को असमर्थ पाता हूं.
टीवी पर बहस के दौरान एक एंकर ने कहा, ‘स्टूडियो में हम सब इस बात पर सहमत हैं कि यदि वार्ता नहीं हो पाती है, तो इसके लिए पाकिस्तान दोषी है.’ मगर मैं इससे सहमत नहीं था.
वहां तो जैसे यही मान लिया गया था कि चूंकि यह भारत बनाम पाकिस्तान का मामला है, अत: सभी भारतीय भारत सरकार के रुख का समर्थन करेंगे अथवा उन्हें ऐसा ही करना चाहिए. जिन पैनेलिस्टों ने पहले हुर्रियत के मुद्दे पर सरकार का समर्थन किया था, वे अगले ही दिन सुषमा स्वराज के इस मत का भी समर्थन कर रहे थे कि यदि कश्मीर का मुद्दा उठाया गया, तो वार्ता नहीं होनी चाहिए.
यदि हम पाकिस्तानी प्रतिनिधियों से मिलेंगे नहीं, तो फिर उन्हें अपनी समस्याएं कैसे बताएंगे? क्या केवल टीवी की बहसों तथा संवाददाता सम्मेलनों से? यदि ऐसा ही है, तो मुङो भय है कि अधिक गुणवत्तापूर्ण संवाद की अपेक्षा नहीं की जा सकती.
यह मान लिया गया है कि सीमा-रेखाएं खींची जा चुकी हैं और दोनों पक्ष लड़ाई में कूद पड़े हैं. हममें से हर कोई, चाहे वह विेषक हो, राजनीतिज्ञ, नागरिक, क्रिकेटर या कि गृहिणी हो, उसे चाहिए कि वह दूसरे पक्ष को दुश्मन के रूप में देखे तथा दुश्मन जो भी कहता अथवा करता है, उसे खारिज कर दे, भले उससे हमें कुछ भी न मिलता हो.
मैं इस मतान्धता का समर्थन नहीं कर सकता और इसीलिए टीवी पर बहस करना मेरे लिए कठिन है.कुछ लोग पूछ सकते हैं कि यदि आप इससे इतनी ही नफरत करते अथवा इसे अरुचिकर पाते हैं, तो फिर टीवी की बहसों में आपका आना जारी कैसे है? इसकी वजह स्वभावत: यही है कि मुङो इस काम के पैसे तो मिलते ही हैं और हमेशा तो नहीं, पर कभी-कभी यह आनंददायक भी होता है. दूसरी वजह, मेरा यह मानना है कि कुछ तो और लोग होंगे ही, जो मेरी ही तरह सोचते हों.
हो सकता है, ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा नहीं हो, पर मैं यह यकीन तो करना ही चाहूंगा कि ऐसे लोगों का भी एक वर्ग जरूर ही है, जो पागलपन तथा क्षुद्रता को अस्वीकार करता है.
(अनुवाद : विजय नंदन)