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श्रीलंका में नयी सरकार और भारत

डॉ गौरीशंकर राजहंस पूर्व सांसद व पूर्व राजदूत पिछले दिनों ही श्रीलंका का आमचुनाव संपन्न हुआ है, जिसमें प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं और पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे बुरी तरह पराजित हो गये. श्रीलंका में हर्षोल्लास है. विक्रमसिंघे चौथी बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं. अब राष्ट्रपति सिरिसेना और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की […]

डॉ गौरीशंकर राजहंस
पूर्व सांसद व पूर्व राजदूत
पिछले दिनों ही श्रीलंका का आमचुनाव संपन्न हुआ है, जिसमें प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं और पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे बुरी तरह पराजित हो गये.
श्रीलंका में हर्षोल्लास है. विक्रमसिंघे चौथी बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं. अब राष्ट्रपति सिरिसेना और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की जोड़ी श्रीलंका में अभूतपूर्व विकास लायेगी, इसकी उम्मीद की जा रही है. ये दोनों नेता भारत के अनन्य मित्र हैं.
इसके विपरीत राजपक्षे का झुकाव चीन की ओर ज्यादा था, इसलिए विक्रमसिंघे के प्रधानमंत्री बनने पर चीन बौखला गया है. उसके प्रमुख समाचार पत्र ने लिखा है कि भारत तो एक गरीब देश है, वह चीन के मुकाबले श्रीलंका को कैसे आर्थिक मदद दे सकेगा और उसके विकास में सहयोग कर सकेगा?
चीनी मीडिया ने कहा है कि नये राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भारत के प्रति दोस्ती का रवैया छोड़ कर चीन से पहले की तरह ही दोस्ती मजबूत कर लेनी चाहिए.
चुनाव की घोषणा होते ही पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे ने ऐलान किया था कि वे चुनाव में खड़े होंगे और यदि उनकी पार्टी चुनाव जीत गयी, तो वे देश के प्रधानमंत्री बनेंगे. लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि श्रीलंका में आज तक ऐसा नहीं हुआ है कि कोई राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद प्रधानमंत्री बनने का प्रयास करे.
इसके जवाब में राजपक्षे समर्थकों ने कहा कि रूस में पुतिन जब राष्ट्रपति के पद से निवृत्त हो गये, तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव लड़ा, जीत गये और प्रधानमंत्री बन गये. जब पुतिन प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो राजपक्षे क्यों नहीं?
राजपक्षे पर भाई-भतीजावाद का गंभीर आरोप था. जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने अपने एक भाई को वित्त मंत्री, दूसरे भाई को रक्षा मंत्री और तीसरे भाई को संसद का स्पीकर बनाया था.
यह सच है कि वर्षो से चले आ रहे ‘लिट्टे’ के आतंक को राजपक्षे ने बुरी तरह कुचल दिया था और श्रीलंका में वर्षो के बाद शांति बहाल हुई थी.
परंतु सत्ता में आने के बाद वे धीरे-धीरे तानाशाह बन गये. अल्पसंख्यक तमिलों पर अत्याचार नहीं रुका और देश आकंठ भ्रष्टाचार में डूब गया.
राजपक्षे 10 वर्ष तक सत्ता में रहे और उन्हें यह गलतफहमी हो गयी कि वे आजीवन सत्ता में रहेंगे. परंतु जनता उनकी तानाशाही और सरकार के भ्रष्टाचार से तंग आ गयी थी. राजपक्षे स्वयं तो इस चुनाव में जीत गये, परंतु उनकी पार्टी बुरी तरह हार गयी.
श्रीलंका की संसद में कुल 225 सदस्य हैं. राजपक्षे की पार्टी को बहुत थोड़े से वोट मिले. परंतु रानिल विक्रमसिंघे की ‘यूनाइटेड नेशनल पार्टी’ यानी यूएनपी बहुमत के करीब पहुंच गयी. श्रीलंका की अन्य छोटी पार्टियों ने विक्रमसिंघे को समर्थन दे दिया.
अपने शासनकाल में राजपक्षे ने भारत की पूरी तरह उपेक्षा की थी और चीन की मदद से देश में कई बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरू कर दिया था.
चीन ने राजपक्षे की मदद से श्रीलंका में एक ऐसा बंदरगाह बना लिया, जिससे खाड़ी की ओर से आनेवाले सभी तेलवाहक जहाजों पर नजर रखी जा सके और यदि कभी युद्ध की स्थिति आये, तो इन तेलवाहक जहाजों को रोका जा सके. भारत ने दबी जुबान से इसका विरोध भी किया था, परंतु राजपक्षे पर इसका कोई असर नहीं पड़ा.
जब नरेंद्र मोदी गत वर्ष भारत के प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में राजपक्षे को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया और तब ऐसा लगा था कि राजपक्षे चीन से हट कर भारत की मित्रता कबूल करेंगे. परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ. श्रीलंका लौटने के बाद राजपक्षे का रवैया पूर्ववत रहा.
जब श्रीलंका में गृहयुद्ध अंतिम चरण में, था तब राजपक्षे ने अनेक निदरेष तमिलों की हत्या करायी थी. पश्चिम के देशों का यह अनुमान था कि इस दौर में प्राय: 40 हजार निदरेष नागरिक मारे गये थे.
संयुक्त राष्ट्र ने इस विषय में एक जांच समिति श्रीलंका यह पता लगाने के लिए भेजी थी कि वहां कितने निदरेष नागरिक मारे गये थे और किस प्रकार राजपक्षे की सरकार ने मानवाधिकारों का हनन किया था. परंतु राजपक्षे ने सुरक्षा परिषद् के इस जांच दल के साथ कोई सहयोग नहीं किया था. पश्चिम के देशों को सबक सिखाने के लिए वे तेजी से चीन के साथ बढ़ रहे थे.
लोग राजपक्षे की तानाशाही और उनकी सरकार के भ्रष्टाचार को भूले नहीं थे. इसलिए श्रीलंका के सभी तबके के लोगों ने राजपक्षे के खिलाफ और विक्रमसिंघे की पार्टी ‘यूनाइटेड नेशनल पार्टी’ के पक्ष में भारी मतदान किया. अब विक्रमसिंघे के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और श्रीलंका के संबंध निश्चित रूप से पहले से अधिक मधुर हो जायेंगे और श्रीलंका के पुनर्वास में भारत पूरे जी-जान से मदद करेगा.
भारत की इतने दिनों से जो मांग थी कि अल्पसंख्यक तमिलों को श्रीलंका में न्याय मिले, वह राष्ट्रपति सिरिसेना और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की सरकार में संभवत: पूरा होगा. कुल मिला कर विक्रमसिंघे का श्रीलंका में प्रधानमंत्री बनना भारत के हित में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण घटना है.

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