वित्तीय अनुशासन से टलेगी मंदी
ग्लोबल अर्थव्यवस्था के एक और मंदी की तरफ बढ़ने की आशंका ने दुनिया भर के बाजारों में कोहराम मचा दिया. गिरावट इतनी जबरदस्त थी कि देखते-देखते निवेशकों के करीब सात लाख करोड़ रुपये उड़न-छू हो गये.बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के शेयर बाजार की कुल कीमत सौ खरब रु पये से नीचे आ गयी. मची घबराहट के […]
ग्लोबल अर्थव्यवस्था के एक और मंदी की तरफ बढ़ने की आशंका ने दुनिया भर के बाजारों में कोहराम मचा दिया. गिरावट इतनी जबरदस्त थी कि देखते-देखते निवेशकों के करीब सात लाख करोड़ रुपये उड़न-छू हो गये.बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के शेयर बाजार की कुल कीमत सौ खरब रु पये से नीचे आ गयी.
मची घबराहट के बीच ‘अच्छे दिनों’ की बात करनेवाले एनडीए सरकार के वित्त मंत्री अरु ण जेटली एवं आरबीआइ के गवर्नर रघुराम राजन अब जुमला पढ़ कर कि ‘कुछ दिनों की बात है’, निवेशकों को तसल्ली देने की कोशिश कर रहे हैं. सवाल उठता है कि रह-रहकर ऐसी नौबत आती ही क्यों है?
निवेशकों का विश्वास जीतने में अभी तक हम क्यों विफल हैं? नन-बैंकिंग एवं चिट फंड कंपनियों पर हम अकुंश क्यों नहीं लगा पा रहे हैं? दरअसल, ये ऐसे छोटे मनी ड्रेन पॉकेट हैं, जो अर्थव्यस्था की रफ्तार को प्रभावित करते हैं. निवेशकों का विश्वास सेविंग या इंवेस्टमेंट से उठता है.
चूंकि मौजूदा आर्थिक उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के दौर में सारी अर्थव्यवस्थाएं एक साथ जुड़ी हुई हैं, इसलिए चीनी मंदी, यूएस फेडरल बैंक के ब्याज दर में वृद्धि, क्रूड ऑयल की कीमत में गिरावट आदि मौजूदा मंदी के कारण तो हैं, लेकिन डॉलर के मुकाबले इंडियन करेंसी में तकरीबन तीन रुपये की गिरावट चिंतनीय है, क्योंकि रु पये का मूल्य गिरना अर्थव्यस्था पर कहीं अधिक मारक असर देगा. 2007-2008 की मंदी से उतपन्न संकट हमें याद है. हालात वैसे ही बन रहे हैं.
वक्त का तकाजा है कि मोदी सरकार वित्तीय अनुशासन का सख्ती से पालन करे और साथ हीअतिरिक्त प्रशासनिक खर्च को कम करे, ताकि मंदी की भयावहता से देश को बचाया जा सके.
डॉ हर्षवर्धन कुमार, पटना कॉलेज, पटना