नर्मदा बचाओ आंदोलन की उपलब्धि
प्रो योगेंद्र यादव स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन से जुड़े हैं नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के जीवन अधिकार सत्याग्रह में भाग लेने मैं बड़वानी (मध्य प्रदेश) पहुंचा हुआ था. वहां भी एक राजघाट है, जहां बापू की अस्थियां प्रवाहित हुई थीं.वहां से नौकाओं में सवार होकर देशभर से आये सहयोगी नर्मदा का पानी अपनी […]
प्रो योगेंद्र यादव
स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन से जुड़े हैं
नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के जीवन अधिकार सत्याग्रह में भाग लेने मैं बड़वानी (मध्य प्रदेश) पहुंचा हुआ था. वहां भी एक राजघाट है, जहां बापू की अस्थियां प्रवाहित हुई थीं.वहां से नौकाओं में सवार होकर देशभर से आये सहयोगी नर्मदा का पानी अपनी अंजुली में लेकर एक नया संकल्प ले रहे थे. डगमगाती नाव की चिंता मेरे मन की इस बड़ी चिंता को दबा देती थी.
लेकिन नाव में मेधा पाटकर की उपस्थिति इस सवाल को गायब हो जाने से रोकती थी. ठीक वैसे ही जैसे मेधा ‘ताई’ (मराठी में ‘दीदी’) ने पिछले तीस वर्षो से नर्मदा के सवाल को देश के स्मृति पटल से ओझल होने से रोक रखा है.
खासतौर पर पिछले दस साल में यह सवाल कई बार पूछा गया है. पिछले हफ्ते सनत मेहता के देहांत ने फिर इस सवाल की याद दिलायी थी. सनत मेहता गुजरात में राष्ट्रीय आंदोलन से राजनीति में आयी अंतिम पीढ़ी के प्रतिनिधि थे. सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने से पहले सनत भाई गुजरात के वित्त मंत्री रहे, सांसद भी रहे थे.
वे राजनीति में शुचिता के प्रतीक थे, उन पर कोई आरोप लगाना संभव नहीं होगा. वे शुरू से नर्मदा पर बांधों के पक्ष में थे. एक समय तो वे नर्मदा प्राधिकरण के अध्यक्ष भी रहे थे. उनकी राय में नर्मदा के बांधों से गुजरात में सूखी खेती करनेवाले किसानों को फायदा था.
उनकी निगाह में, नर्मदा बचाओ आंदोलन इसमें अड़ंगा लगाने का व्यर्थ प्रयास था. मैं उनसे सहमत नहीं था. लेकिन पिछले बीस साल तक उनका स्नेह और आशीर्वाद पाने के बावजूद मैं सनत भाई से नर्मदा के सवाल पर बहस नहीं कर पाया. उनके जाने के बाद उनका सवाल और भी कचोट रहा था.
सवाल दूसरे छोर से भी उठ सकता है. बांधों और विस्थापन के घोर विरोधी भी पूछते हैं कि तीस साल के इस अहिंसक सत्याग्रह से आखिर क्या मिला? आंदोलन का नारा था ‘कोई नहीं हटेगा, बांध नहीं बनेगा’, लेकिन बांध तो बने.
एक-दो नहीं, बल्कि सरकारी योजना के मुताबिक सारे बांध बने. और इस योजना का प्रतीक सरदार सरोवर बांध भी सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी के साथ बना. अब तक 122 मीटर ऊंचा बन चुका है और 139 मीटर तक चढ़नेवाला है.
हिंसक संघर्ष को माननेवालों की ओर से बड़वानी के राजघाट पर यह सवाल तैर रहा था: आज के भारत में सत्याग्रह का क्या मतलब है?
इस सवाल के जवाब में आंकड़े गिनाये जा सकते थे. मसलन यह कहा जा सकता था कि इस आंदोलन के चलते कोई 11,000 विस्थापित परिवारों को भूमि के बदले भूमि मिली. इतनी बड़ी मात्र में भूमि पहले कभी नहीं मिली. इसी आंदोलन के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को मान्यता दी कि डूब से पहले पुनर्वास अनिवार्य है.
इसी सिद्धांत के सहारे आज भी विस्थापितों ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने के खिलाफ स्टे लिया है. इस आंदोलन ने पुनर्वास के हकदार हर परिवार को सूचीबद्ध किया, जिससे पता लगा कि किनका हक मारा जा रहा है.
पुनर्वास में हर कदम पर हो रहे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ भी इसी आंदोलन ने किया. आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी अधिग्रहण की धक्का-पेल की जगह हर कानूनी प्रक्रिया का पालन करने को मजबूर किया गया, हर विचलन को दर्ज किया गया. अधिग्रहण पीड़ितों को इस आंदोलन के कारण हुए और अनेक फायदे भी गिनाये जा सकते थे.
लेकिन सनत मेहता के लिए यह सब काफी नहीं होता. विस्थापितों को न्याय मिलने से उन्हें ऐतराज नहीं था, उनका सवाल गुजरात के किसानों को हुए फायदे के बारे में था.
अगर उनसे बात हो पाती, तो उनके सामने भी कुछ आंकड़े रखता. जब सरदार सरोवर बांध की योजना बनी, तो अनुमानित लागत कोई 9,000 करोड़ रुपये थी. अब उससे दस गुना ज्यादा लागत का अनुमान है.
इतने में गुजरात के किसानों के लिए कितने छोटे बांध बन सकते थे? वादा यह था कि 8 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकेगी, लेकिन वास्तव में 2.5 लाख हेक्टेयर में भी सिंचाई का लाभ नहीं मिला है. सरदार सरोवर का पानी अब किसान के बदले उद्योगों और शहरों को दिया जा रहा है.
कच्छ की प्यास बुझाने की बजाय यह पानी कोका-कोला जैसी कंपनियों को बेचा जा रहा है. क्या इसलिए हजारों परिवारों, मंदिरों-मसजिदों और जंगल को डुबाया गया था? मेरा मन कहता है कि सनत मेहता इस बात को जरूर सुनते.
यह सच है कि एनबीए ने सिर्फ पूरा, बेहतर और भ्रष्टाचार रहित मुआवजा नहीं मांगा था.
उसका विरोध बांध और अधिग्रहण का सैद्धांतिक विरोध था. सच यह है कि यह आंदोलन बांध बनने और विस्थापन होने को रोक नहीं पाया. जैसे महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन अंगरेजी राज को उखाड़ नहीं पाया था, जैसे जेपी नारायण का बिहार आंदोलन भ्रष्ट सरकार से इस्तीफा नहीं ले पाया था.
लेकिन, जैसे गांधीजी और जेपी के आंदोलनों ने दमनकारी सत्ता के विघटन की बुनियाद रखी, उसी तरह नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विकास के नाम पर विनाश के साम्राज्य की नैतिक आभा को तोड़ दिया है.
बांध पहले भी बने थे, शहर पहले भी बसे थे, विस्थापन पहले भी हुए थे, विस्थापन की पीड़ा पहले भी रही थी. लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन से पहले इस दर्द के पास जुबान नहीं थी, इस पीड़ा की अपनी भाषा नहीं थी.
हीराकुड बांध या चंडीगढ़ शहर के विस्थापित लोगों के पास ‘विकास’ के नाम पर उनके साथ जो हो रहा था, उसे समझने और समझाने का विचार नहीं था.
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पूरे देश को यह दर्द समझाया. यह बताया कि यह दर्द लाइलाज नहीं है, विकास की चालू अवधारणा पर सवालिया निशान लगाया, वैकल्पिक विकास की सोच शुरू की. जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय लोगों के स्वामित्व का सिद्धांत रखा.
आज देश में जगह-जगह विस्थापन के विरुद्ध सैंकड़ों आंदोलन चल रहे हैं. अगर एनबीए न होता तो न इतने आंदोलन होते, न ही इनमें इतनी नैतिक और राजनीतिक ऊर्जा होती.
अगर एनबीए न होता तो अंगरेजों के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा न होती, 2013 में संसद की सर्वसम्मति से नया कानून न बनता और 2015 में उस कानून को निरस्त करने की मोदी सरकार की कोशिश का इतना सफल विरोध न होता.
भले ही गंगा देश की सबसे पवित्र नदी हो, लेकिन इस आंदोलन ने नर्मदा का यश देश के कोने-कोने में पंहुचाया है.
बेशक एनबीए से सत्ता की बेहयाई नहीं टूटी है, लेकिन देश की आंख में डेढ़ मीटर की मेधा पाटकर का कद 122 मीटर के बांध और उसे बनानेवालों से बड़ा है.
बड़वानी के राजघाट पर खड़े-खड़े मेरा मन तीस साल आगे देखने लगा. साल 2045 में देश का प्रधानमंत्री इसी राजघाट पर खड़ा होकर देश की ओर से माफी मांग रहा है. आदिवासियों से, किसानों से, मजदूरों से, उनकी पीढ़ियों से.
विकास के नाम पर हुए विनाश के लिए, आजीविका छीनने के लिए, प्रकृति के ध्वंस के लिए, स्मृति-चिह्नें से हिंसा के लिए. माफी मांग रहा है नर्मदा से, कह रहा है कि हमें इस घाटी की गूंज सुननी चाहिए थी : ‘नर्मदा बचाओ, मानव बचाओ’.