भाई की कलाई में प्याज बांधा है!

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार रक्षा-बंधन फिर आ गया है. इस बार फिजा कुछ बदली-सी है. बिहार में चुनाव सिर पर आ गये हैं और देश में प्याज महंगा होकर लोगों के सिर पर जा चढ़ा है.बिहार के चुनावों में कल तक दुश्मन रहे नेताओं ने प्यारभरा गंठबंधन कर रक्षाबंधन का गौरव बढ़ाया है, तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 28, 2015 11:15 PM

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

रक्षा-बंधन फिर आ गया है. इस बार फिजा कुछ बदली-सी है. बिहार में चुनाव सिर पर आ गये हैं और देश में प्याज महंगा होकर लोगों के सिर पर जा चढ़ा है.बिहार के चुनावों में कल तक दुश्मन रहे नेताओं ने प्यारभरा गंठबंधन कर रक्षाबंधन का गौरव बढ़ाया है, तो कुछ ऐसा ही काम आलू ने प्याज से गंठबंधन कर बाजार में किया है.

लोकतंत्र में चुनाव गंगा की तरह पवित्र होते हैं. आज गंगा जिस हालत में पहुंच गयी है, उससे इस बात की बखूबी पुष्टि हो जाती है. चुनाव आते ही सत्ताधारी दल और उसके नेता विरोधी दलों की नजर में एकाएक घोर पापी और त्याज्य हो जाते हैं और वे जनता को भी वैसा ही समझाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं.

लेकिन अगर उनमें से कोई चुनाव में अपने दल की आसन्न पराजय भांप अपनी आत्मा की आवाज पर, जो चुनाव के समय ही सुनायी देती है, अपना दल छोड़ विरोधियों से आ मिलता है, तो फिर वह जरा भी पापी नहीं रह जाता, चुनाव की गंगा उसके सारे पाप धो देती है, चाहे इस चक्कर में गंगा खुद ही मैली क्यों न हो जाये.

भारतीय लोकतंत्र की खूबी है कि चुनाव के दौरान एक-दूसरे की जान की प्यासी नजर आनेवाली पार्टियां चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिए इस तरह से गलबहियां कर लेती हैं कि जनता ठगी-सी रह जाती है और समझ नहीं पाती कि जिस पार्टी का विरोध करने के लिए उसने पार्टी-विशेष को वोट दिया था, वह उसी पार्टी से मिल कर सरकार बना रही है, तो फिर उसका उसे वोट देने का अर्थ ही क्या हुआ?

असल में राजनीतिक पार्टियां बुरे से घृणा करती हैं, बुराई से नहीं. इस तरह देखा जाये तो पार्टियां घृणा की राजनीति नहीं करतीं. इस चक्कर में उनकी राजनीति ही घृणास्पद हो जाये, तो अलग बात है.

उधर आलू और प्याज में होड़ लगी है ऊपर उठने की. अच्छे दिन आ जाने के बावजूद आम आदमी तो ऊपर उठ नहीं पा रहा, तो आलू-प्याज ही सही.

असल में इतना गिर गया है वह कि उठना दूभर हो गया है. आलू-प्याज को भी पता नहीं, कौन-सी रेस जीतनी है, जो दौड़े ही चले जा रहे हैं.

आलू दोगुना बढ़ा तो प्याज जोश में आकर चौगुना बढ़ गया. दोनों ने महंगे होकर आम आदमी की हालत ऐसी पतली कर दी है कि उठते-बैठते, सोते-जागते उसे आलू-प्याज ही नजर आते हैं. तुलसीदास की तरह वह भी कह उठता है कि- आलू-प्याजमय सब जग जानी, करहु प्रनाम जोरि जुग पानी.

और इन हालात में इस बार रक्षा-बंधन आया है. चारों तरफ भाई-बहन के प्यार के गीत बज रहे हैं, पर प्यार शब्द प्याज जैसा सुनाई पड़ता है- बहना ने भाई की कलाई में प्याज बांधा है..!

राखियों पर प्याज बना है और उपहार में बहनें प्याज मांगती दिख रही हैं. लेकिन, एक बहन ने अपने भाई से एक अलग ही तरह का तोहफा मांगा है. वह कहती है कि हे भाई, इस राखी पर तुम बस यही तोहफा मुङो देना, रखोगे मां-बाप का खयाल, बस यही वचन देना.

मुङो सोना-चांदी, हीरे-मोती, यहां तक कि आलू-प्याज, कुछ नहीं चाहिए. मां-बाप खुश रहेंगे, तो मैं भी ससुराल में खुश रह सकूंगी. इसलिए बस, मुङो तुम यही वचन दो तोहफे में इस राखी पर कि मां-बाप का पूरा ख्याल रखोगे.

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