शायद यह मामला (शीना बोरा हत्याकांड) यह भी सिद्ध करता है कि न्याय- दैवी न्याय- है. यह चुप्पी उन घटनाओं में से एक के चलते टूटी जिसका विश्लेषण दैवी हस्तक्षेप के बतौर ही किया जा सकता है.
हत्या में जब पूरी दुष्टता हो, तो वह मोहक बन जाती है. हम उसे आंखें फाड़ कर देखे जाते हैं, हमारी भूख शांत ही नहीं होती. कोई मनोवैज्ञानिक इसके कारणों के बारे में बता सकता है, मैं सिर्फ अपना पर्यवेक्षण दे सकता हूं. दुष्टता हमेशा सोची-समझी साजिश होती है. ये छलावे की परतों में लिपटा समीकरण होती है. और जब ऊंची पहुंच रखनेवाला हत्यारा सामाजिक षड्यंत्रों से संरिक्षत होता है, तह हर छलावा एक सिद्धांत बन कर सुराग जुटाने में लगी पुलिस को भ्रमित करने लगता है. यह भ्रम फैलाने के लिए लोगों में घृणित मनोरंजन के लिए एक तृष्णा भी जगाता है. शीना बोरा की हत्या अपने मूल रूप में दुष्टता का पुनर्जन्म है.
कोई झूठ अधिक देर तक टिका नहीं रह सकता है, भले प्रेस पूरी तरह से भोला-भाला हो और पुलिस निराशा की हद तक भ्रष्ट हो. भारतीय मीडिया में कमियां हो सकती हैं, पर इसे मनमर्जी से नहीं हांका जा सकता है. उसके पास पैंतरे दिखाने की क्षमता है.
शीना का जन्म इंद्राणी के सौतेले पिता उपेंद्र बोरा द्वारा बलात्कार के बाद हुआ था. द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे अपनी पहली खबर के लायक माना. लेकिन, उसी दिन यानी शनिवार, 29 अगस्त को इसी अखबार ने 17वें पन्ने पर बोरा के पक्ष को छापा जिसमें उसने इस आरोप का खंडन किया. उसने दावा किया कि असली पिता सिद्धार्थ दास नामक व्यक्ति है जिससे उसने किशोरावस्था में विवाह किया था. स्पष्टता के लिए एक बहुत आसान रास्ता है : डीएनए जांच.
अगर धूल से कहानी बनेगी, तो हवा में धूल उड़ती भी है. मीडिया को दोष देना आसान है, लेकिन मीडिया वहीं तक जा सकता है, जहां तक लोगों की रु चि बनी हुई हो. अगर कोई पाठक नहीं होगा, तो फिर कोई कहानी भी नहीं होगी. आखिर हमें इस हत्या के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्योंकि यह एक आम हत्या नहीं है. इसमें हुई बर्बरता कल्पना की हर हद से परे है. मनुष्यों और जानवरों की दुनिया के जीवन का सबसे पवित्र नैतिक नियम- माता और बेटी के संबंध- के साथ अविश्वास की सीमा से बाहर तक क्रूरता हुई है.
जब यह खबर आयी थी, तब मैं एक शानदार नयी किताब द गोल्डेन एज ऑफ मर्डर पढ़ रहा था. इसमें जीके चेस्टरटन से लेकर अगाथा क्रिस्टी तक की ब्रिटिश लेखकों की उस शानदार पीढ़ी का जिक्र है जिन्होंने हत्या रहस्यों पर आधारित असाधारण ब्रिटिश साहित्य रचा. हत्यारा हमेशा शक के दायरे से बाहर होता है क्योंकि वह बहुत सामान्य होता या होती है, बहुत कुछ हममें से एक. न्याय के लिए एक विलक्षण सनकी जांचकर्ता की जरूरत होती है.
अंग्रेज की तरह कोई उस सफाई से हत्या नहीं करता. अमेरिकी सामूहिक हत्या में पारंगत होते हैं, जो एक अलग कहानी है. मुङो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इनमें से बहुत कहानियां ब्रिटेन में हुई सच्ची हत्याओं पर आधारित हैं. अब मुङो लगता है कि कहानियों के इतने विशाल पुस्तकालय में कोई कहानी नहीं है जिसमें किसी मां ने अपनी बेटी का कत्ल किया हो- गुस्से में भी नहीं और उस साजिश से तो कतई नहीं, जैसा इंद्राणी ने किया- पहले उसने शीना को नशीला पदार्थ पिलाया और फिर उसका गला घोंट दिया. ऐसा लगता है कि शीना का भाई मिखाइल भी उनके निशाने पर था, पर इससे क्रि स्टी की एक अलग अवधारणा पुष्ट होती है : पहली हत्या किसी भी नैतिकता से इस हद तक मुक्त कर देती है कि अनिवार्य रूप से दूसरी हत्या होती है.
हत्या के पीछे सबसे बड़ा कारण लालच होता है और फिर भय का स्थान आता है. जो लोग लालच में जीने लगते हैं, उन्हें विश्वास होने लगता है कि धन से वे अपनी सुरक्षा खरीद सकते हैं. इस भरोसे का उनके पास कारण होता है. इस बात को मत भूलिये कि इंद्राणी तकरीबन बच ही गयी थी. यह मामला तीन साल पहले भी चर्चा में आ सकता था, लेकिन जिस इलाके में लाश को जला कर फेंका गया, वहां तैनात पुलिस अधिकारी ने एक आदिवासी ग्रामीण की सूचना पर जांच करने की जरूरत नहीं समझी थी. क्यों? क्या उसे पैसा दिया गया था? अगर हां, तो किसने दिया था? मुंबई पुलिस ने राहुल मुखर्जी की तीन साल पहले की गयी शिकायत को हल्के में क्यों लिया?
इंद्राणी के प्रभावशाली पति पीटर का कहना है कि उसने इस बेवकूफी पर भरोसा कर लिया था कि शीना अमेरिका में कहीं गुम हो गयी है और जिसका न तो कोई पता है और न ही मोबाइल फोन. इन तीन सालों में उन्होंने अमेरिका की यात्र जरूर की होगी. उन्होंने भी जिज्ञासा का परित्याग कर दिया? इस पर भरोसा कर पाना बहुत मुश्किल है. फिलहाल, शायद यह मामला यह भी सिद्ध करता है कि न्याय- दैवी न्याय- है. यह चुप्पी उन घटनाओं में से एक के चलते टूटी जिसका विश्लेषण दैवी हस्तक्षेप के बतौर ही किया जा सकता है.
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
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