पाटीदार आंदोलन की पृष्ठभूमि को समङिाए
आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार गुजरात के पाटीदार आंदोलन को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है. मंडल कमीशन की सिफारिशें कार्यान्वित किये जाने के पूर्व ही गुजरात में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के अतिरिक्त अन्य समुदायों के लिए भी आरक्षण लागू हो चुका था. बख्शी कमीशन द्वारा चिह्न्ति सामाजिक तथा आर्थिक रूप […]
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
गुजरात के पाटीदार आंदोलन को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है. मंडल कमीशन की सिफारिशें कार्यान्वित किये जाने के पूर्व ही गुजरात में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के अतिरिक्त अन्य समुदायों के लिए भी आरक्षण लागू हो चुका था.
बख्शी कमीशन द्वारा चिह्न्ति सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए गुजरात में 1970 के दशक में 10 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण भी दिया गया. इसमें पाटीदार शामिल नहीं किये गये, जो सामाजिक रूप से शक्तिशाली थे और आज भी हैं.
1980 के दशक में आरक्षण का दूसरा दौर लागू हुआ, जब पाटीदारों द्वारा आरक्षण के लिए चलाये गये आंदोलन में 15 साल की उम्र में मैं भी शामिल हुआ.
इसमें लगभग 100 व्यक्ति मारे गये, जिनमें से अधिकतर गरीब और अन्य अत्यंत निचली जातियों के लोग थे, जिन पर पाटीदारों ने अपना गुस्सा उतारा. अब तो मैं उस आंदोलन की तफसील भूल चुका हूं, लेकिन जब मैंने लेखक तथा नौकरशाह चंदूभाई महेरिया से बातें की, तो उन्होंने मुङो याद दिलाया कि यह सब तब हुआ था, जब आरक्षण को बढ़ा कर 28 प्रतिशत कर दिया गया था. मंडल कमीशन की सिफारिशों के कार्यान्वयन से इस सूची में और जातियां जुड़ती चली गयीं.
1999 में वाजपेयी सरकार ने इसमें घांची समुदाय को शामिल कर दिया और उसी के साथ नरेंद्र मोदी भी अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल हो गये.
आरक्षण के अन्य शुरुआती लाभग्राहियों में एक वह समूह भी शामिल था, जिसे नव-क्षत्रिय अथवा क्षत्रिय कहा जा सकता है.क्षत्रिय जाति निश्चित रूप से पटेल से ऊंची थी, मगर व्यवसायी गुजरात में सम्मान की कोई आर्थिक कीमत नहीं है और लड़ाकुओं को कोई खास इज्जत नहीं बख्शी जाती थी. क्षत्रियों की शैक्षिक तथा सामाजिक स्थिति उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल किये जाने के योग्य ही ठहराती थी.
राजनीतिक रूप से क्षत्रिय और पाटीदार दो बड़े प्रतिद्वंद्वी हैं और गुजरात के बारे में किसी भी समझ की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए. भाजपा अधिकांशत: पाटीदारों की पार्टी है, जबकि कांग्रेस मुख्यत: क्षत्रियों की पार्टी है.
यह समीकरण तब और भी मजबूत हो उठा, जब मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने अपने ‘खाम’ गंठबंधन का गठन किया, जिसे क्षत्रिय, हरिजन (गुजराती लोग अब भी दलित के बजाय इसी शब्द का इस्तेमाल करते हैं), आदिवासी तथा मुसलिम समुदायों का समर्थन हासिल था. यह गंठबंधन पटेलों के विरुद्ध ही था. पटेल समुदाय हिंदुत्व से अत्यंत प्रभावित होकर भाजपा की ओर चला गया.
क्षत्रियों तथा पाटीदारों के बीच की खाई भाजपा तक भी विस्तारित हो गयी. 1990 में जब भाजपा सत्ता में आयी, तो लगभग तुरंत ही वह दोफाड़ हो गयी. क्षत्रिय शंकर सिंह वाघेला पर केशुभाई पटेल के नेतृत्व में पाटीदार समूह की जीत हुई तथा आरएसएस के नजदीकी होने के बावजूद वाघेला भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में चले गये.
मोदी के आने के पहले तक भाजपा में सिद्धांतों से बढ़ कर जाति की अहमियत थी, लेकिन मोदी ने इसे एक दूसरे लक्ष्य, मुसलिमों, की ओर मोड़ दिया. इसने भाजपा में एकता ला दी या कम-से-कम उसकी फूट ऊपर से ढांप दी.
पटेलों का अधिकांश क्षोभ उनकी जगह पर निचली जातियों को आरक्षण देने से था. इसका कुछ अंश तो पटेलों के लिए भी आरक्षण की मांग के पक्ष में ‘सकारात्मक’ था, मगर इतना ही नकारात्मक भी था, जिसकी यह मांग थी कि आरक्षण को दूसरों के लिए बंद किया जाये.
आज भी यही स्थिति है और कई लोगों ने इस पर टिप्पणी भी की है कि किस तरह वर्तमान आंदोलन आरक्षण के पक्ष और विपक्ष दोनों में है.
एक अन्य पहलू पर भी ध्यान देने की जरूरत है. सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का गुजरात मॉडल उत्पादन पर आधारित रहा है. गुजरात ऐसा एकमात्र प्रमुख राज्य है, जहां उत्पादन तथा सेवाओं का अनुपात वस्तुत: उत्पादन की ओर झुका हुआ है. यह कोई नयी स्थिति नहीं है, यह हमेशा से ऐसी ही रही है.
गुजरात में कॉल सेंटरों की अपेक्षा कारखाने ज्यादा फलते-फूलते हैं और इसकी मुख्य वजह अंगरेजी की जानकारी का अभाव है. एक ऐसे समुदाय के लिए, जिसके अमेरिका और ब्रिटेन सहित अंगरेजी दुनिया से गहरे तथा पुराने ताल्लुकात रहे हैं, यह तथ्य उल्लेखनीय है.
किंतु यह उन लोगों के लिए स्पष्ट है, जो पाटीदार आंदोलन की ओर तुरंत खिंचे चले आ रहे हैं; ये वैसे शहरी और शिक्षित लोग नहीं हैं, जैसे हमारे नगरों में आमतौर पर पाये जाते हैं.
मैं लंबे वक्त से गुजरात सरकार से यह अनुरोध करता आ रहा हूं कि वह सरकारी स्कूलों में कक्षा पांच तक अंगरेजी न पढ़ाने के अपने नियम को बदल दे. मैं समझता हूं कि मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने इसे बदलने की कोशिश की, पर आरएसएस ने उन्हें इससे पीछे हटने को बाध्य कर दिया.
एक बार इस विषय पर उनसे मेरी बातचीत हुई, जिसमें उन्होंनेबताया कि इसे लेकर उनके मन में कोई अस्पष्टता नहीं है (उन्होंने इस पर जोर दिया कि कक्षा पांच से कुछ विषयों की पढ़ाई अंगरेजी तथा अन्य की पढ़ाई गुजराती में होगी), लेकिन मुङो ऐसा लगा कि यदि कक्षा पांच तक अंगरेजी न पढ़ाने का नियम पलटा जा सकता, तो मोदी ज्यादा खुश होते.
सरकार की इस अंगरेजी विरोधी नीति का एक नतीजा तो यह हुआ कि हमारे अन्य बड़े नगरों में सॉफ्टवेयर तथा सेवाक्षेत्र की जो धूम मची रही, वह गुजरात में नदारद है.
हालांकि, यहां तीन मुख्य बड़े नगर हैं, पर यहां इन्फोसिस, विप्रो, एक्सेंचर, टीसीएस अथवा ऐसी किसी भी अन्य कंपनी की कोई खास मौजूदगी नहीं है. इसकी मुख्य वजह यही है कि सॉफ्टवेयर तथा सेवाक्षेत्र के लिए बुनियादी रूप से जरूरी कौशल अंगरेजी की जानकारी है.
विकास के गुजरात मॉडल का यह पहलू इतने वर्षो में निगाहों से ओझल ही रहा, मगर आगे यह ज्यादा ध्यान में आता जायेगा, क्योंकि यह सरकारी नीति के नतीजे के रूप में पैदा हुआ है.
पाटीदारों के इस कथन पर यदि भरोसा कर भी लिया जाये कि उनका आंदोलन आरक्षण पाने के लिए है, न कि दूसरे समुदायों के लिए उसे समाप्त करने पर, तो भी मेरी राय में आरक्षण से यह समस्या नहीं सुलङोगी. गुजरात में सामाजिक गतिशीलता के अभाव तथा बाबूगिरी के अवसरों के अभाव की समस्या मिटनेवाली नहीं है.
यह केवल पाटीदार समुदाय की ही नहीं, सारे गुजरातियों की समस्या है. यह समस्या एक ऐसी अर्थव्यवस्था से पैदा हुई है, जिस पर कारखाने और व्यापार हावी हैं और इस स्थिति के अपने सकारात्मक तथा नकारात्मक पहलू हैं.
यह एक ऐतिहासिक स्थिति है और वस्तुत: यह कोई अकेले मोदी की वजह से नहीं है. यदि वे दिल्ली नहीं गये होते, तो भी यह आंदोलन होता और इतना ही उग्र हुआ होता.
(अनुवाद : विजय नंदन)