गिरफ्तारी का डर

आधुनिक होते समाज में अपराध की प्रकृति एवं तरीके भी बदल रहे हैं. ऐसे में पुलिस की भूमिका भी बढ़ रही है. उसे अपराध के पारंपरिक तौर-तरीकों के साथ-साथ साइबर क्राइम और इंटरनेट के जरिये फैलाये जा रहे वैमनस्य से भी निपटना है. हालांकि संचार तकनीक के विकास ने यह सुविधा मुहैया करायी है कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 3, 2015 11:21 PM
आधुनिक होते समाज में अपराध की प्रकृति एवं तरीके भी बदल रहे हैं. ऐसे में पुलिस की भूमिका भी बढ़ रही है. उसे अपराध के पारंपरिक तौर-तरीकों के साथ-साथ साइबर क्राइम और इंटरनेट के जरिये फैलाये जा रहे वैमनस्य से भी निपटना है.
हालांकि संचार तकनीक के विकास ने यह सुविधा मुहैया करायी है कि फोन, ऐप और सोशल मीडिया के जरिये अब पुलिस जनता से और जनता पुलिस से आसानी से जुड़ सकती है. क्राइम की गुत्थी सुलझाने, आरोपों की कड़ियां जोड़ने, सबूत जुटाने में भी मोबाइल और सोशल मीडिया काफी मददगार साबित हो रहा है.
पर, जरा ठहर कर सोचें कि क्या ऑनलाइन होती दुनिया में पुलिस अब जनता की फ्रेंड लिस्ट में शामिल है, या आम जनता को पुलिस के कार्य व व्यवहार से अब भी डर लगता है?
किसी भी लोकतांत्रिक देश-समाज में पुलिस की भूमिका जनता की रक्षक की होनी चाहिए, लेकिन देश के ज्यादातर इलाकों में आज भी एक आम आदमी थाने जाने से पहले सौ बार सोचता है, जबकि इलाके के दबंग और दागी लोगों का थाने में आना-जाना लगा रहता है.
सही-गलत केस दर्ज होते ही आरोपित को हिरासत में ले लेना या गिरफ्तारी का डर दिखा कर प्रताड़ित करना, यह पुलिस पर आम आरोप है.
बड़ी संख्या में लोग ऐसे आरोपों में सालों तक जेल में सड़ते रहते हैं, जिनमें कोई दम नहीं होता, या जो रंजिशन लगाये जाते हैं. पुलिस आरोपित को जेल भेज कर निश्चिंत हो जाती है, सालों तक कोई सबूत नहीं जुटा पाती.
सालों बाद आरोपित कोर्ट से रिहा हो भी जाता है, तो तब तक उसके पूरे परिवार की जिंदगी पटरी से उतर चुकी होती है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस संबंध में व्यक्त चिंता, पुलिस और सरकारों के लिए गंभीर चिंतन का सबब होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यौन उत्पीड़न के एक केस में 17 वर्षीय आरोपित को अग्रिम जमानत देते हुए कहा है कि ‘किसी की गिरफ्तारी के साथ अपयश, अपमान और बदनामी जुड़ी होती है. इसलिए गिरफ्तारी से पहले अधिकारी को केस डायरी में गिरफ्तारी के लिए सही कारणों को अवश्य दर्ज करना चाहिए’.
साथ ही ‘जिन मामलों में अदालत की राय है कि आरोपित जांच में शामिल हुआ है, जांच एजेंसी के साथ सहयोग कर रहा है, उसके भागने की संभावना नहीं है, उनमें हिरासत में लेकर पूछताछ करने से बचना चाहिए.’
उम्मीद करनी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत की इस चिंता के बाद सरकारें पुलिस की कार्यप्रणाली में ठोस बदलाव कर उसे जनता की ‘फ्रेंड लिस्ट’ में शामिल करने की दिशा में कुछ गंभीर प्रयास करेगी.

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