आर्थिक संकट के प्रति उदासीनता चिंताजनक
यह दावा निर्थक है कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत है, सो हमें कोई फिक्र नहीं, यह दौर भी गुजर ही जायेगा! मेरे ख्याल में किसी आरक्षण आंदोलन या किसी सूबे के चुनावों से कहीं अधिक चिंताजनक चुनौती हमारी अर्थव्यवस्था की ही है. यह नयी बात नहीं कि खबरों की सुर्खियों में वह घटनाएं या हलचल छायी […]
यह दावा निर्थक है कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत है, सो हमें कोई फिक्र नहीं, यह दौर भी गुजर ही जायेगा! मेरे ख्याल में किसी आरक्षण आंदोलन या किसी सूबे के चुनावों से कहीं अधिक चिंताजनक चुनौती हमारी अर्थव्यवस्था की ही है.
यह नयी बात नहीं कि खबरों की सुर्खियों में वह घटनाएं या हलचल छायी रहती है, जिसका आम आदमी की जिंदगी के दुख-दर्द से दूर-दराज का भी रिश्ता नहीं होता. कभी कोई सनसनीखेज बलात्कार या हत्या जिसमें कोई मशहूर हस्ती शिकार या अभियुक्त हो हमारा ध्यान भटकाते हैं, तो कभी निकट भविष्य में होनेवाले चुनावों की हार-जीत से जुड़ी लालबुझक्कड़ी हमें दमभर की मोहलत नहीं देती. चौबीस घंटे हर पल टूट कर हमारे सिर पर बरसती खबरें परोसनेवाले टीवी चैनलों का तकाजा है कि वह सबसे आगे रहने की अंधाधुंध दौड़ में बरसों से जारी सरहद पार से प्रायोजित दहशतगर्द घुसपैठ को इस तरह पेश करें, जैसे कोई अभूतपूर्व अप्रत्याशित सामरिक चुनौती अचानक प्रकट हो रही है. कुछ यही अंदाज उन विश्लेषकों का भी नजर आता है, जिनके लिए तगड़े पिछड़ों की आरक्षण की मांग या पूर्व सैनिकों की समान पद समान पेंशन का तकाजा ही देश के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां हैं. बड़ा क्लेश तो यह है कि क्रिकेट की सदाबहार अंदरूनी भ्रष्ट राजनीति हमारे दिलो-दिमाग पर हावी होने लगती है.
इधर आर्थिक जगत में प्रकट हुए संकट के प्रति सरकार और जागरूक समङो जानेवाले नागरिकों की उदासीनता चिंताजनक ही कही जा सकती है. अर्थव्यवस्था का थर्मामीटर समझा जानेवाला स्टॉक एक्स्चेंज लगातार सैकड़ों सूचकांक गिरावट दर्ज कराने लगा है. हमें फिलहाल बेफिक्र बैठने की राय दी जा रही है, यह दिलासा देकर कि यह अंधड़, जिसके लिए चीन की अर्थव्यवस्था का संकट जिम्मेवार है, जल्दी ही टल जायेगा. इस सांत्वना से संतुष्ट हो पाना कठिन है.
चीन में हीं नहीं, अमेरिका में भी हमारे प्रतिकूल बदलाव साफ नजर आ रहा है. वह मंदी की चपेट से उबर रहा है. यह स्वाभाविक है कि अब वह विदेश में निवेश के लिए पहले की तरह व्याकुल नहीं है. भारत से विदेशी निवेशकों द्वारा अपनी निधि वापस ले जाने से ही बेचारा रुपया डॉलर की तुलना में कमजोर हो रहा है. अर्थात् भले ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें कम हो रही हैं, महंगे डॉलर के कारण हमारा तेल बिल कम नहीं होगा! इसका असर महंगाई बढ़ानेवाला ही हो सकता है.
यहां भी दिग्गज अर्थशास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या वर्तमान वित्त मंत्री अरुण जेटली, यह तर्क देते हैं कि कमजोर रुपया नुकसानदेह नहीं, वरन फायदेमंद है. इससे हमारे निर्यातकों को फायदा होगा. सोचने की बात यह है कि किन निर्यातकों को फायदा होगा और कुल मिला कर यह लाभ कितने आम हिंदुस्तानियों की जिंदगी की तंगहाली दूर करेगा? यह सवाल उठाना नाजायज नहीं कि भारत की आबादी का अधिकांश हिस्सा आज भी खेतीबाड़ी और असंगठित क्षेत्र की मेहनत-मजूरी से जुड़ा है, जिसकी बुनियाद निर्यात पर नहीं टिकी है. कड़ुवा सच यह है कि आज की ही नहीं, पिछली चौथाई सदी से राज कर रही हमारी सरकारें विकास और आर्थिक प्रगति के आंकड़ों से हमें छलती रही हैं. हमारी अर्थव्यवस्था में उत्पादन का क्षेत्र आज भी कमजोर है. प्रधानमंत्री जब ‘मेक इन इंडिया’ की बात कहते हैं, तो अनायास यह भी याद दिलाते हैं कि हमारे उद्यमी किस पर निर्भर हैं! यदि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पाद प्रतियोगी क्षमता रखते, तब निश्चय ही निर्यात का लाभ अपेक्षाकृत ज्यादा लोगों को होने की संभावना रहती.
हाल के दिनों में विकास के जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे यह हकीकत जगजाहिर हो चुकी है कि जिन वर्षो में हमारे आर्थिक विकास की दर सबसे अधिक थी, उसी दौर में बेरोजगारी सबसे तेजी से बढ़ी. हमेशा यह तर्क दिया जाता रहा है कि यह बदलाव का दौर अस्थाई है. अंतत: विकास से जो खुशहाली आयेगी, उसमें सभी का हिस्सा होगा. रोजगार के नित नये अवसर पैदा होंगे, जो नौजवानों को बेहतरी की राह दिखायेंगे. मगर विकास का जो मॉडल हमने अपनाया है, उसको लागू करने से रोजगार बढ़ने के आसार दूर-दराज तक नजर नहीं आते. असंगठित क्षेत्र में लगभग बंधुवा मजदूरों की तरह काम करनेवाले कुशल कारीगर ही नहीं, पेशेवर प्रबंधक भी अपने को निरापद नहीं समझ सकते. वेतनमान बढ़ाने की मांग बर्खास्तगी के कगार तक पहुंचा सकती है. सेवा क्षेत्र में और विशेषज्ञ पेशेवर कौशल के क्षेत्र में विदेशियों के प्रवेश की पेशकश कम चिंताजनक नहीं. गैरसरकारी कर्मचारी ही नहीं, सरकारी नौकर भी आज पेंशन-भविष्यनिधि के बारे में असुरक्षित ही कहे जा सकते हैं. सार-संक्षेप यह है कि आंकड़ों के मायाजाल में फंसे बिना भी आसन्न आर्थिक संकट महसूस किया जा सकता है.
एक और बात को रेखांकित करने की आवश्यकता है. जो कुछ यहां कहा जा रहा है, उसका मकसद मौजूदा सरकार की आलोचना नहीं है, बल्कि यह समझना बेहद जरूरी है कि जिन आंकड़ों का जिक्र किया जा रहा है, वे सरकारी आंकड़े हैं. चिंता व्यक्त करनेवाले भी दलगत पक्षधरता से ग्रस्त राजनीतिक विरोधी कह कर खारिज नहीं किये जा सकते. इस आलोचक बिरादरी में खुद सरकार के वर्तमान और पूर्व आर्थिक सलाहकार एवं रिजर्व बैंक के गवर्नर भी शामिल हैं.
अर्थव्यवस्था का संकट तभी चर्चा का विषय बनती है, जब बड़े उद्योगपति या विश्वविख्यात उद्यमी आर्थिक सुधारों के अगले चरण को लागू करने में देरी की बाबत अपनी निराशा प्रकट करते हैं. अन्यथा खाने-पीने की चीजों की महंगाई और कीमतों पर काबू पाने में सरकार की नाकामी तक पाठक-दर्शक के सरोकार सीमित रखे जाते हैं.
अंत में, यह सोचना नादानी है कि चीनी अर्थव्यवस्था का संकट चीन तक सीमित रहेगा. अभी हाल तक इस बात का ढिंढोरा बहुत जोर-शोर से पीटा जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में चीन हमारा नंबर एक साझीदार है. उसकी मंदी और अस्थिरता से हमारा संतुलन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता. इसी तरह अरब जगत की हिंसक अशांति और उथल-पुथल भरे गृहयुद्ध हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अवसर नहीं, बल्कि जोखिम ही समङो जाने चाहिए. कभी गाढ़े वक्त का दोस्त रूस आज हमारे प्रति उदासीन है. पुतिन यूक्रेन की समस्या में व्यस्त हैं, तो यूरोपीय समुदाय ग्रीस के दीवालियेपन का बोझ ढो रहा है. ब्रिक्स को लेकर जो आशा की किरण दिखती थी, वह चीन की परेशानी से धूमिल हो रही है. कुल मिला कर, इस घड़ी यह दावा निर्थक लगने लगा है कि ‘हमारी अपनी अर्थव्यवस्था की बुनियाद पुख्ता है, सो हमें किसी बात की फिक्र नहीं. यह दौर भी गुजर ही जायेगा!’
हमारी समझ में किसी आरक्षण आंदोलन या किसी सूबे के चुनावों से कहीं अधिक चिंताजनक चुनौती हमारी अर्थव्यवस्था की ही है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com