हिंदी की दुर्दशा पर चिंतन का समय
किसी देश में मातृभाषा की उन्नति वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को इंगित करता है. इस दृष्टि से देश में नागरिकों के सौतेले व्यवहार से क्षुब्ध दिन-प्रतिदिन गिरती हिंदी की गरिमा से उसके प्रेमियों की आंखें नम हैं. दुर्भाग्य यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में लोग हिंदी को हेय दृष्टि से […]
किसी देश में मातृभाषा की उन्नति वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को इंगित करता है. इस दृष्टि से देश में नागरिकों के सौतेले व्यवहार से क्षुब्ध दिन-प्रतिदिन गिरती हिंदी की गरिमा से उसके प्रेमियों की आंखें नम हैं. दुर्भाग्य यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में लोग हिंदी को हेय दृष्टि से देख रहे हैं, जो उसके लिए शुभ नहीं है.
किसी देश की मातृभाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, बल्कि देश को एक सूत्र में पिरोने का भी काम करती है. यदि देश में हिंदी की यही दुर्दशा रही, तो वह समय दूर नहीं जब हम देश की अखंडता और एकता को टूटते हुए देखेंगे. जब लोग अपनी मर्जी के मालिक होंगे, तो वह समय भी दूर नहीं जब हम भाषायी दृष्टि से भी गुलामी की जंजीरों में खुद को जकड़ा हुआ पायेंगे. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अंतिम समय तक ‘हिंदुस्तानी’ भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी.
यह भाषा न तो पूरी तरह हिंदी थी और न ही उर्दू, बल्कि दोनों भाषा की समिन्वत एक ऐसी भाषा थी, जो पूरे हिंदुस्तान को एक साथ जोड़े रखती. दुर्भाग्यवश अंग्रेज के चापलूसों ने ऐसा होने नहीं दिया. देश के भीतर ही विरोधियों ने कुतर्क देकर अपनी मांग को सही ठहराया.
बेशक, भारत भाषायी विविधतावाला देश है, लेकिन संविधान सभा द्वारा किसी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, तो उसका हम सभी को सम्मान करना चाहिए. प्रतिवर्ष 14 सितंबर को आनेवाला हिंदी दिवस मात्र कर्मकांड नहीं है, बल्कि स्वमूल्यांकन का एक अवसर भी है कि हमारी राजभाषा की उन्नति के लिए हम क्या कर रहे हैं?
अभी हिंदी भले ही अंतरराष्ट्रीय फलक पर विभिन्न रूपों में चमक रही हो, बावजूद इसके वह अंगरेजी के मुकाबले संपर्क भाषा नहीं बन पायी है. आज जरूरत इस बात की है कि हम इसकी दुर्दशा पर चिंतन करें.
– सुधीर कुमार, गोड्डा