अफ्रीका से व्यापार की राह आसान नहीं

पुष्परंजन दिल्ली संपादक, ईयू एशिया न्यूज बत्तीस साल पहले नयी दिल्ली में दो ‘मेगा कूटनीतिक शो’ हुए थे. 7 से 12 मार्च, 1983 को सातवां गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन और उसी साल 23 से 29 नवंबर को सातवां कॉमनवेल्थ सम्मेलन. दोनों ही संगठनों की सातवीं शिखर बैठक! ऐसा अद्भुत संयोग प्राप्त करने का अवसर तत्कालीन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 9, 2015 1:13 AM
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक,
ईयू एशिया न्यूज
बत्तीस साल पहले नयी दिल्ली में दो ‘मेगा कूटनीतिक शो’ हुए थे. 7 से 12 मार्च, 1983 को सातवां गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन और उसी साल 23 से 29 नवंबर को सातवां कॉमनवेल्थ सम्मेलन.
दोनों ही संगठनों की सातवीं शिखर बैठक! ऐसा अद्भुत संयोग प्राप्त करने का अवसर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मिला था. नयी दिल्ली में इस साल 26 से 29 अक्तूबर के बीच एक बड़ा कूटनीतिक शो होने जा रहा है, जिसके केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे. भारत-अफ्रीका फोरम की शिखर बैठक पहली बार 2008 में नयी दिल्ली में, दूसरी बार 2011 में इथियोपिया की राजधानी आदिस अबाबा में हुई थी. ‘अफ्रीकी फोरम’ की बैठक हर तीन साल पर होना तय हुआ था, लेकिन इबोला महामारी के कारण 2014 में यह शिखर बैठक नहीं हो सकी थी.
पांच उप क्षेत्रों में बंटे अफ्रीका में 54 देश हैं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि अब तक सिर्फ 29 अफ्रीकी देशों से भारत के कूटनीतिक संबंध स्थापित हो पाये हैं. उनमें से 26 अफ्रीकी देशों के ‘मिशन, या पोस्ट’ भारत में हैं. लेकिन लंबी-लंबी छोड़नेवालों का दावा है कि इस बार 50 से अधिक अफ्रीकी देशों के शिखर नेता व प्रतिनिधि आयेंगे, 35 ने ‘कन्फर्म’ कर दिया है.
आदिस की शिखर बैठक में मात्र 12 अफ्रीकी शासनाध्यक्षों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी. 4 से 9 अप्रैल, 2008 को नयी दिल्ली में अफ्रीकी फोरम की पहली शिखर बैठक में सिर्फ 14 नेता आये थे. ऐसे में 50 अफ्रीकी देशों के शासन प्रमुखों और प्रतिनिधियों को बुलाना भगीरथ प्रयास से कम नहीं है.
उपनिवेशवाद के कारण एक आम अफ्रीकी हमसे जुड़ता है. ‘अफ्रीका के गांधी’ के रूप में नेल्सन मंडेला निरूपित किये गये, तो उसके राजनीतिक, भौगोलिक और भावनात्मक कारण भी रहे हैं. सबके बावजूद हमारे रणनीतिकार बहुत देर से जागे. इसका नतीजा है कि अफ्रीका से 2014 तक 70 अरब डॉलर तक का व्यापार हो पाया.
चीन सजग है, तो उसका नतीजा है कि 2015 में अफ्रीका से उसका व्यापार 385 अरब डॉलर को छूने जा रहा है. भारत 2015 में 90 अरब डॉलर को छू लेता है, तो ढोल-नगाड़े बजने शुरू हो जायेंगे. अफ्रीका में चीन के अलावा अमेरिका, मलयेशिया, ब्राजील, तुर्की, जापान, यूरोपीय संघ, भारत के प्रबल प्रतिस्पर्धी हैं.
इस समय अंगोला, मिस्र, मोरक्को, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका से भारत का 89 प्रतिशत व्यापार हो रहा है. 2005 से 2011 के बीच भारत-अफ्रीका व्यापार में औसतन 32 प्रतिशत सालाना की वृद्धि हुई है.
अफ्रीका के बाकी सारे 49 देशों से यदि सिर्फ 11 प्रतिशत व्यापार होता है, तो यहां पर हम चूक रहे हैं. हमारे रणनीतिकारों को उन वजहों की तलाश करनी होगी, ताकि अफ्रीका के शेष 49 देशों में भारत अपने व्यापार का विस्तार कर सके. शायद इसीलिए 2008 और 11 की दो शिखर बैठकों में 25 प्रतिशत अफ्रीकी नेता व नुमाइंदे आ सके थे. यह ‘भारत-अफ्रीका फोरम समिट’ की ‘सक्सेस स्टोरी’ नहीं है.
चीन में जिस तरह से आर्थिक भूचाल आया हुआ है, और यूरोप जिस तरह से शरणार्थी समस्या से दो-चार हो रहा है, क्या भारत उसका लाभ अफ्रीका में उठा पायेगा? इसका उत्तर वही लोग दे सकते हैं, जो विदेश मंत्रालय में ‘अफ्रीका डेस्क’ को संभाल रहे हैं. क्योंकि, जब ‘भारत-अफ्रीका फोरम समिट’ की वेबसाइट 2008 के बाद ‘अपडेट’ नहीं हुई है, तो यह कैसे पता चलेगा कि सरकार इस इलाके में क्या कर रही है?
डर इस बात का है कि हमारी रणनीतिक गंभीरता अकसर ‘इंवेट मैनेजमेंट’ और डांस-ड्रामे की भेंट चढ़ जाती है. अगले महीने अफ्रीका-भारत शिखर बैठक तक मोदी सरकार के डेढ़ साल पूरे हो जायेंगे. इस डेढ़ साल में अफ्रीका पर कम ध्यान दिया गया, इस सच को नकारा नहीं जा सकता.
इस समय भारत, अफ्रीका में पांचवा निवेशक देश है. टाटा, किर्लोस्कर, रिलायंस, मित्तल जैसे समूह अफ्रीका के खनन और तेल दोहन में काफी पैसे लगा चुके हैं. सीआइआइ और विश्व व्यापार संगठन ने 2013 में जो ब्योरे दिये थे, उनके अनुसार भारत ने अफ्रीका में 35 अरब डॉलर का निवेश कर रखा है. इसके बरक्स अफ्रीका से भारत में निवेश 2013 में 64 अरब डॉलर का था. शेष अफ्रीका के मुकाबले मॉरीशस का भारत में 40 प्रतिशत पैसा लगा है.
यह बहुत हद तक सही है कि मारीशस से भारत आया पैसा काले धन को सफेद करने की प्रक्रिया का हिस्सा रहा है. फिर भी मारीशस, अफ्रीका का सबसे बड़ा एफडीआइ करनेवाला देश बन गया है. भारत में मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका दूसरे-तीसरे नंबर के निवेशक रहे हैं. मोरक्को का निवेश निर्माण के क्षेत्र में है, तो दक्षिण अफ्रीका का सर्विस और खुदरा कारोबार में. क्या हम पश्चिमी अफ्रीकी निवेशकों को भारत में पैसा लगाने के वास्ते आकर्षित कर सकते हैं?
आज की तारीख में अफ्रीका से व्यापार में चीन से सबक लेने की जरूरत है. चीन हर साल 160 अरब डॉलर के सामान अफ्रीकी देशों में भेज रहा है. अफ्रीकी देशों में दस लाख से अधिक चीनी नागरिक रह रहे हैं, उनमें से अधिकतर चीनी परियोजनाओं में काम कर रहे हैं. तंजिया लोग कहते भी हैं कि चीन ने अफ्रीका में दूसरा महाद्वीप बना रखा है. अफ्रीका, ‘मेक इन इंडिया’ के लिए एक बड़ा बाजार है. यह बाजार सब सहारा से लेकर छोटे-छोटे अफ्रीकी देश भी हो सकते हैं.
अफ्रीका की ‘सात रीजनल ग्रुपिंग्स‘ में से सबसे ताकतवर पश्चिम अफ्रीका है, जहां बढ़ती आबादी समृद्ध हो रही है. वह एक बड़ा बाजार है. पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजीरिया, गीनिया, आइवरी कोस्ट, गेबोन व घाना, ऊर्जा और खनिज के मामले में संपन्न हैं. भारत 20 प्रतिशत कच्चा तेल अफ्रीका से मंगाता है, जिसका 50 प्रतिशत पश्चिम अफ्रीका से आयात होता है.
इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (इकोवास) पर भारत की पकड़ बनी रहे, यह इस समय की बड़ी चुनौती है. सीआइआइ ने 30 भारतीय कंपनियों को ‘इंडिया-अफ्रीका प्रोजेक्ट पार्टनरशिप कॉन्क्लेव’ के जरिये पश्चिम अफ्रीकी देशों में सक्रिय किया है. नाइजीरिया से अमेरिका सबसे अधिक कच्चे तेल लेता था, वहां अमेरिका की लकीर भारत ने छोटी कर दी.
अमेरिका ने अफ्रीका पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए ‘एफ्रीकॉम’ की व्यूह रचना कर रखी है, जिसे भेदने में चीन को भी मुश्किलें होती हैं. शायद मोदी जी अपने मित्र ओबामा से मिल कर अफ्रीका में चीन का विकल्प बनने पर कोई बात करें!

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