भुला दिये गये 9/11 के सबक!
कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार इक्कीसवीं शताब्दी के पहले साल के नौवें महीने की ग्यारहवीं तारीख थी वह, जब कुख्यात अलकायदा ने सर्वशक्तिमान अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर भयावह हमले से सारी दुनिया को हिला कर रख दिया था. युद्धों के अलावा शायद ही कभी किसी और घटना में एक ही जगह पर उतनी […]
कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
इक्कीसवीं शताब्दी के पहले साल के नौवें महीने की ग्यारहवीं तारीख थी वह, जब कुख्यात अलकायदा ने सर्वशक्तिमान अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर भयावह हमले से सारी दुनिया को हिला कर रख दिया था. युद्धों के अलावा शायद ही कभी किसी और घटना में एक ही जगह पर उतनी बड़ी संख्या में लोग बेमौत मरे हों, जितने उस हमले में मारे गये. स्वाभाविक ही तब आतंकवाद की विभीषिका के जड़-मूल से खात्मे के बड़े-बड़े संकल्प लिये गये.
लेकिन अफसोस कि उन्हें जल्दी ही भुला दिया गया और आज की दुनिया आतंकी कारनामों के पहले से कहीं ज्यादा भीषण खौफ में जीने को अभिशप्त है. चौदह वर्षों में इस खौफ का नाम भर बदला है. पहले वह अलकायदा नाम से जाना जाता था और अब आइएस नाम से!
जिस अमेरिका को पीड़ित के तौर पर उस हमले से सबसे ज्यादा सबक लेने चाहिए थे, वह बस इतने में मगन है कि उसने अपने देश में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होने दी.
लेकिन इस अमेरिकी आत्ममुग्धता से परे रह कर वस्तुस्थिति पर तार्किक सोच रखनेवालों का ऐसे तमाम सवालों से पीछा नहीं छूट रहा कि आतंकवाद विरोधी युद्ध को अंजाम तक ले जाने की ढेरों दर्पोक्तियों के बावजूद क्यों अभी भी वह रक्तबीज बन कर दुनिया के नये-नये हिस्सों को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है? आतंकी संगठनों को हथियार, पैसा व समर्थन कौन देता है?
कहां तो भारत जैसे कई देशों को उम्मीद थी कि अब जब आतंकवाद की महाविपदा उस चौधरी का घर भी देख आयी है, जो अब तब उसे ‘परायी पीर’ समझता और जरूरत होने पर ‘पीड़कों’ को अपने मुस्टंडों की तरह पालता-पोसता व इस्तेमाल करता था, वह उससे लड़ने निकलेगा तो उनके हिस्से की लड़ाई भी लड़ देगा और कहां उसकी कुटिलताओं ने आतंकवाद फैलाने व रोकने दोनों को अरबों डॉलर के ग्लोबनल बिजनेस में बदल डाला है!
इस ‘ग्लोबल बिजनेस’ में आतंकियों को मार कर ही आतंकवाद उन्मूलन के सपने देखे जा रहे हैं! यह स्थिति दुनिया की अन्यायी राजव्यवस्थाओं को इस अर्थ में ज्यादा रास आती है कि आतंकवाद के पलने-बढ़ने में उनकी भूमिका अचर्चित रह जाती है.
यह सच ढका-तुपा रह जाता है कि आतंकवाद उनके द्वारा किसी के अतिपोषण, अनियंत्रित लिप्साओं और असभ्यताओं के टकराव से पैदा होकर गरीबी, गैरबराबरी, नाइंसाफी व अशिक्षा से उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक तनाव, असंतोष व असहिष्णुता द्वारा संरक्षित होता है. बार-बार धर्म का नाम लेने व उसके साम्राज्य का सपना देखने-दिखानेवाले आतंकी संगठन भी राजनीति से ही संचालित होते और व्यवस्थाओं द्वारा प्रायोजित अन्यायों, क्रूरताओं व दमनों से जीवनीशक्ति पाते हैं.
विडंबना देखिये कि उनका उन्मूलन चाहनेवालों के पास अभी तक आतंकवाद की कोई स्पष्ट परिभाषा तक नहीं है. ‘अपना आतंकवाद’ तो उनको आतंकवाद ही नहीं लगता. वे पेट्रोल डाल कर आग बुझाना और इसमें सफल होना चाहते हैं! क्या आश्चर्य कि ऐसे में आतंकवाद उन्मूलन की राह लगातार कठिन होती जा रही है.