14.2 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

निरक्षर अब पंचायत के दरवाजे से बाहर

सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता भू टान, लीबिया, केन्या, नाईजीरिया और भारत इन देशों में क्या समानता है? वैसे, पहले उल्लेखित चारों देश- जहां जनतंत्र अभी ठीक से नहीं आ पाया है, कहीं राजशाही तो कहीं तानाशाही, तो कहीं जनतंत्र एवं अधिनायकवाद के बीच की यात्रा चलती रहती है- और दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र कहलानेवाले […]

सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
भू टान, लीबिया, केन्या, नाईजीरिया और भारत इन देशों में क्या समानता है? वैसे, पहले उल्लेखित चारों देश- जहां जनतंत्र अभी ठीक से नहीं आ पाया है, कहीं राजशाही तो कहीं तानाशाही, तो कहीं जनतंत्र एवं अधिनायकवाद के बीच की यात्रा चलती रहती है- और दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र कहलानेवाले भारत की किस आधार पर तुलना की जा सकती है?
पिछले दिनों आये हरियाणा विधानसभा के एक फैसले ने दरअसल भारत को इन देशों के समकक्ष खड़ा कर दिया. हरियाणा विधानसभा ने बहुमत से यह प्रस्ताव पारित किया कि पंचायत चुनाव लड़ने के लिए आप को न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता है. हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) बिल ने पहले से चले आ रहे पंचायती राज अधिनियम को संशोधित कर दिया है और अब अक्तूबर में होनेवाले पंचायत चुनावों के लिए शैक्षिक योग्यता की शर्त तथा घर में टॉयलेट होने को अनिवार्य बनाया है.
अनुसूचित जातियों एवं महिलाओं के लिए छठवीं-सातवीं की योग्यता तथा सामान्य श्रेणी के लिए हाइस्कूल को अब पंचायत प्रमुख के पद के लिए अनिवार्य बनाया गया है, जबकि साधारण पंच के लिए अनुसूचित जातियों/महिलाओं के लिए पांचवीं कक्षा की योग्यता तय की गयी है.
प्रस्तुत कानून बनाने के पहले हरियाणा सरकार ने आदेश जारी किया था, तो उसे अदालती चुनौती दी गयी थी और पंजाब-हरियाणा हाइकोर्ट ने सरकार के इस आदेश पर रोक लगा दी थी. अब उस अदालती बाधा को दूर करने के लिए ही बिल लाया गया है.
एक क्षेपक के तौर पर बता दें कि इस मामले में हरियाणा को अग्रणी नहीं कहा जा सकता. इसके पहले राजस्थान सरकार ने ऐसे नियमों का ऐलान कर दिया था और इसके आधार पर वहां चुनाव भी संपन्न हो चुके हैं. राजस्थान एवं हरियाणा सरकार के इन कदमों के चलते अब भारत इन चारों देशों की कतार में शामिल हुआ है, जहां चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी किस्म की शैक्षिक योग्यता की जरूरत पड़ती है. भूटान एवं लीबिया, दोनों देशों में संसदीय चुनाव लड़ने के लिए आप का कम-से-कम स्नातक होना जरूरी है, वहीं केन्या एवं नाइजीरिया में आपका स्कूली शिक्षा पूरी करना जरूरी है.
गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और अन्य विकसित पश्चिमी देशों में भी आपको किसी भी स्तर का चुनाव लड़ने के लिए किसी शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता नहीं है. अन्य सफल कहे जानेवाले जनतंत्र, जो मानव विकास सूचकांकों की श्रेणी में भी ऊंचे पायदान पर हैं, वहां पर भी चुनाव लड़ने की न्यूनतम योग्यता नागरिकता है, उम्र है, वोट देने की पात्रता है.
शैक्षिक योग्यता तय करने के पीछे दोनों सरकारों का यही तर्क रहा है कि पंचायतों में लाखों रुपये का फंड आता है और अकसर उसमें गबन की शिकायत आती है. ऐसे मामलों में तहकीकात करने पर चुने हुए प्रतिनिधि यही तर्क देते हैं कि चूंकि वह शिक्षित नहीं हैं, और किस कागज पर उनसे अंगूठा लगवाया गया, इसको वे पहचान नहीं सके.
अब हरियाणा तथा राजस्थान में यदि आप विधायक या सांसद का चुनाव लड़ना चाहते हों और निश्चित ही हजारों-लाखों पंचायतों ही नहीं, देश की बेहतरी के निकायों को सुशोभित करने का इरादा रखते हों, तो आपके लिए किसी भी किस्म की शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता नहीं है.
यानी अगर आप दस्तखत न कर पाते हों और महज अंगूठा लगा कर ही काम चलाते हों, तो आप यहां के विधानसभाओं के सदस्य बन सकते हैं, या किसी भी इलाके से चुने जाकर देश की संसद में विराजमान हो सकते हैं, मगर अपने गांव की पंचायत में आप प्रतिनिधि के तौर पर नहीं पहुंच सकते हैं.
यह समझदारी इस हकीकत की अनदेखी करती है कि आजादी के बाद साक्षरता के मामलों में हुई तमाम तरक्की के बावजूद आज भी भारत में निरक्षरता का प्रमाण ज्यादा है, यहां तक कि निरक्षरों के मामलों में भारत पहले स्थान पर है. और यह अनुपात अधिकाधिक बढ़ता जाता है, अगर आप किन्हीं वंचित, उत्पीड़ित तबकों से ताल्लुक रखते हों. इस नये कानून की सबसे अधिक मार अनुसूचित जातियों-जनजातियों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यक तबकों पर दिखायी देगी.
साक्षरता के मामले में भारत में जो लेंडर विभाजन है, वह भी रेखांकित करने लायक है. 2011 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक, प्रभावी साक्षरता दर- सात साल और उससे बड़े- पुरुषों के लिए 82 फीसदी है, तो महिलाओं के लिए 65 फीसदी है.
साक्षरता एक तरह से सामाजिक-आर्थिक प्रगति का परिचायक होती है. आजादी के बाद इसमें जबरदस्त सुधार हुआ है, मगर आज भी हमारा मुल्क मानव विकास सूचकांकों के मामले में तीसरी दुनिया के देशों में निचली कतारों में है. पड़ोसी बांग्लादेश या श्रीलंका तक भारत से इस मामले में आगे हैं.
अनुमान यही है कि इसी रफ्तार से चलें, तो सार्वभौमिक साक्षरता हासिल करने के लिए हमें 2060 तक का समय चािहए. नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के नाम पर सार्वजनिक कल्याण खर्चों में जो धड़ल्ले से कटौती की जा रही है, उसके चलते साक्षरता विकास दर घट रही है.
जाहिर है कि एक तरफ जहां कई राज्यों ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के पचास फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की है, वहीं अब साक्षरता की योग्यता तय करके उसने आबादी के विशाल हिस्से- जिनका बहुलांश निश्चित ही वंचित-उत्पीड़ित तबकों से आता है- के लिए दरवाजों को बंद करने पर कानूनी मुहर लगायी है.
समूचे दक्षिण एशिया में सत्ता के विकेंद्रीकरण के अभूतपूर्व प्रयोग के तौर पर पंचायती राज के प्रयोग को नवाजा जाता रहा है. इस अद्भुत प्रयोग ने अपने बीस साल पूरे किये हैं. उसकी समीक्षा में एक तरफ जहां इसके अंतर्गत विभिन्न स्तरों पर चुन कर जानेवाले 25 लाख से अधिक प्रतिनिधियों की चर्चा होती है, वहीं यह बात अभी भी उपेक्षित रही है कि जाति, जेंडर, संपन्न और वर्गीय आधारों पर बंटे हमारे समाज की बनावट की आंतिरक विसंगतियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है.
इस बात पर भी शोध हो चुके हैं कि किस तरह वंचित, उत्पीड़ित तबकों के सदस्यों को कितने स्तर पर दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं, और विषमतामूलक समाज में ऐसे लोगों को अपने कार्यनिष्पादन में किस किस्म की बाधा दौड़ का सामना करना पड़ता है.
और अब पंचायत चुनाव में साक्षरता का पैमाना तय करके इस बाधा दौड़ को और मुश्किल बना दिया गया है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें