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बुद्धिनाथ मि श्रा वरिष्ठ साहित्यकार इस बार पहली बार हुआ है कि सरकारी कार्यालयों के राजभाषा पखवाड़े से आम आदमी का पितृ पक्ष थोड़ा पिछड़ गया है. राजभाषा पखवाड़ा 14 सितंबर से 28 सितंबर तक है, जबकि पितृ पक्ष 28 सितंबर से 12 अक्तूबर को महालया तक. इससे पहले 10 से 12 सितंबर तक भोपाल […]

बुद्धिनाथ मि श्रा
वरिष्ठ साहित्यकार
इस बार पहली बार हुआ है कि सरकारी कार्यालयों के राजभाषा पखवाड़े से आम आदमी का पितृ पक्ष थोड़ा पिछड़ गया है. राजभाषा पखवाड़ा 14 सितंबर से 28 सितंबर तक है, जबकि पितृ पक्ष 28 सितंबर से 12 अक्तूबर को महालया तक. इससे पहले 10 से 12 सितंबर तक भोपाल में आयोजित 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन भी सरकारी महकमे के लिए काफी स्फूर्तिदायक रहा.
सरकारी अधिकारियों को इससे थोड़ी निराशा हुई, क्योंकि चार साल पर हिंदी के बहाने विदेश यात्रा का क्रम इस बार टूट गया.
भारत सरकार के कार्यालयों, अनुसूचित बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिंदी के कार्यान्वयन का दायित्व गृह मंत्रालय को दिया गया है, मगर उसके राजभाषा विभाग के सारे अधिकारी प्रतिनियुक्ति के आधार पर आते हैं. जो खुद तदर्थ पद पर आसीन है, वह स्थायी नीति क्या बनायेगा? वह तो इस विभाग के काम को जानता भी नहीं! बस हंटर फटकार कर हिंदी की नौकरी कर लेता है. राजभाषा का काम विशेषज्ञता की अपेक्षा करता है.
इसमें योगदान करना आइएएस अधिकारियों के वश की बात नहीं है. इसीलिए पहले रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकारों को इसका प्रधान पद सौंपा गया था और इस विभाग में जो भी रचनात्मक कार्य हुए, वे उसी दौरान हुए. इसी बात को ध्यान में रखते हुए संसदीय राजभाषा समिति ने राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय के शीर्ष पद पर पुनः किसी वरिष्ठ साहित्यकार और राजभाषाविद् को नियुक्त करने की संस्तुति की थी, मगर वहां बैठे शातिर अधिकारियों ने उस संस्तुति को ही गोल कर दिया.
बाद में संसदीय समिति का ध्यान हिंदी के विकास से हट कर सरकारी दफ्तरों के दौरे कर कीमती उपहार लेने व पांचसितारा होटलों की अय्याशी में रम गया, इसलिए वह अपनी महत्वपूर्ण संस्तुतियों को भी भूल गयी. जब वही स्वार्थलिप्त हो गयी, तो राजभाषा कार्यान्वयन कार्यालयों के छुटभैये अधिकारी भी क्यों न औकात भर जीभ लपलपाएं!
यह है राजभाषा हिंदी का रुतबा. दूसरी ओर मैली-कुचैली फटी-पुरानी साड़ी पहने जनभाषा हिंदी है. दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषाओं में अग्रणी इस जनभाषा हिंदी की उपलब्धियां हमें गर्वित भी करती है और चकित भी.
कोई जनभाषा किस तरह अपने समाज को बुरे समय में भी अपनी अस्मिता और अपनी संस्कृति से जोड़े रखती है, इसका उदाहरण मॉरिशस, फीजी, सूरिनाम, दक्षिण अफ्रीका, त्रिनिदाद आदि के भारतवंशियों के पिछले दो शतकों के इतिहास में देखा जा सकता है. यह हिंदी का वह जनभाषा रूप है, जिसे हमारे सीधे-सादे पुरखों ने आध्यात्मिक ऊर्जा के अजस्र स्रोत के रूप में देखा था. वे किसान-मजदूर थे.
वे साक्षर भर थे. किसी तरह एक-एक अक्षर मिला कर ‘तुलसी रमायन’ पढ़ लेते थे. वे मोटा कपड़ा पहनते थे, मोटा अनाज खाते थे. धोती-कुरता, एक जोड़ी जूता, कमर में खैनी का बटुआ, कंधे पर सूती अंगोछा और दाहिने हाथ में बांस की तेल पिलायी लाठी. यही उनका बारहमासा बाना था. वे पीली मिट्टी से अपने बाल धोते थे.
देह में सरसों का तेल मल कर स्नान करते थे. घर मोटे-महीन अनाजों से भरा था. बैलों के कंधों पर किसानी थी. विश्व भर में हमारे हस्तशिल्प का बोलबाला था.
फिर देश में फिरंगी आये. खेती-बारी, ग्रामोद्योग, हस्तशिल्प सब कुछ उनके चंगुल में फंस गया. हमारे पुरखे मजदूरी करने के लिए दूर देश जाने को बाध्य हुए. समय बदल गया, मगर जो नहीं बदली, वह थी उनकी अपनी मातृभाषा के प्रति दृढ़ आस्था, जिसने उन्हें सात समुद्र पार के द्वीपों पर भी नया भारत बसाने का संबल दिया. मातृभाषा में यही शक्ति है, जिसे ब्रिटिश हुकूमत अच्छी तरह जानती थी. ब्रिटेन में भी जब तक फ्रेंच राजभाषा थी, तब तक ब्रिटेन यूरोपीय देशों का पिछलग्गू था.
इसलिए रानी विक्टोरिया के अधीन भारत के आने पर सबसे पहला काम हुआ, अंगरेजी शिक्षा के माध्यम से आनेवाली पीढ़ियों को बोंसाई बनाना, उसकी जड़ काटना. गुलामी का खुमार अफीम के खुमार से भी खतरनाक और दीर्घजीवी होता है, जिसके वशीभूत हमारे समय के लाखों अभिभावक अपने बच्चों को खुशी-खुशी कत्लगाहों में भेज रहे हैं, जहां सबसे पहले उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा को अंगरेजी भाषा हलाल करती है.
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस युवा पीढ़ी के कंधों पर हम भारत के सुनहरे भविष्य का सपना देख रहे हैं, वह अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा, अपनी जमीन, अपनी विरासत-सबसे कट चुकी है. वह बाहर जाकर उस देश का चाकर तो हो सकती है, मगर गिरमिटिया मजदूरों की तरह अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर सकती. जनभाषा से कटी हुई युवा पीढ़ी भारत जैसे विकासशील राष्ट्र की प्रगति में कितनी ऊर्जा दे पायेगी, यह इसी बात से स्पष्ट है कि भारत के किसी भी शिक्षा संस्थान का विश्व स्तरीय शिक्षा संस्थानों में कोई स्थान नहीं है. वे नकल कर सकते हैं, क्योंकि केजी क्लास से ही अच्छे नंबर पाने के लिए उन्हें आंख मीच कर रट डालने का गुर सिखाया गया है.
वे न चिंतन कर सकते हैं, न मनन. वे अच्छे पगार पर जी-हुजूरी कर सकते हैं, मगर खुद हुजूर नहीं बन सकते. बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा आइआइटी, आइआइएम जैसे गर्वीले संस्थानों से ऊंची पगार देकर खरीदे गये युवाओं का पारिवारिक-सामाजिक जीवन कुछ नहीं रह गया है. उनकी भाषिक अभिव्यक्ति क्षमता क्षीण हो चुकी है.
जनभाषा हिंदी उस तथाकथित पढ़ी-लिखी पीढ़ी से दूर हो गयी है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिल्में भी उन्हें उसी मोड़ पर ले जा रही हैं, जहां वे किसी भाषा के नहीं रह जाते. दुनिया में लुप्त हुई भाषाओं का करुण इतिहास यही कहता है कि कोई दूसरी भाषा आकर किसी जनभाषा के निजी शब्दों के स्थान पर अपने शब्दों का प्रयोग बढ़ाती है और विभिन्न विषयों में विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उस भाषा को धीरे-धीरे इतनी कमजोर कर देती है कि वह प्रयोग के लायक नहीं रह जाती. हिंदी के साथ भी यही षड्यंत्र चल रहा है, मगर यह सफल नहीं होगा, क्योंकि यह कंप्यूटर की भावी भाषा बनने के उपयुक्त है और विश्व की बड़ी आबादी वाले बाजार की माध्यम-भाषा बन चुकी है.
बाहरी कंपिनयां भी इस देश में इसके सहारे ही अपनी दुकान चलाने के लिए बाध्य हैं. मुझे खुशी है कि भारत की सर्वाधिक प्रचलित जनभाषा हिंदी अपनी आंतरिक ऊर्जा के बल पर अब दुनिया की प्रमुख भाषाओं में गिनी जाने लगी है और दुनिया के लोग प्रधानमंत्री मोदी की आवाज में संपूर्ण भारत की आत्मा की आवाज को सुन रहे हैं.

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