हिंदी : जरूरी सवाल

हिंदी दिवस महज हिंदी के महत्व और उसके विकास की आवश्यकता पर आयोजनों और भाषणों की रस्म-अदायगी का अवसर भर नहीं होना चाहिए. यह वह मौका भी है, जब हम हिंदी की राह की बाधाओं और अब तक हुए प्रयासों की उपलब्धियों पर खुले मन से आत्मचिंतन करें. ऐसी कोशिशों से ही बतौर भाषा हिंदी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 14, 2015 12:50 AM

हिंदी दिवस महज हिंदी के महत्व और उसके विकास की आवश्यकता पर आयोजनों और भाषणों की रस्म-अदायगी का अवसर भर नहीं होना चाहिए. यह वह मौका भी है, जब हम हिंदी की राह की बाधाओं और अब तक हुए प्रयासों की उपलब्धियों पर खुले मन से आत्मचिंतन करें. ऐसी कोशिशों से ही बतौर भाषा हिंदी के बेहतर भविष्य की रूप-रेखा तैयार हो सकती है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिंदी प्रगति के पथ पर अग्रसर है और देश-विदेश में उसे बोलने, पढ़ने और समझनेवालों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है. डिजिटल तकनीक और सूचना-क्रांति के मौजूदा दौर में हमारी भाषा ने महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की है. इंटरनेट, सोशल मीडिया और कंप्यूटरों में हिंदी के इस्तेमाल में बहुत तेजी आयी है. इसी कड़ी में परंपरागत हिंदी मीडिया और हिंदी में किताबों के प्रसार को भी रखा जाना चाहिए. लेकिन आज यह सवाल भी हमारे सामने है कि क्या हिंदी का विकास अपेक्षानुरूप है. क्या विस्तार का वर्तमान संतोषप्रद है? इन सवालों का सीधा जवाब है- नहीं. तकनीक, मीडिया, मनोरंजन और विज्ञापन में हिंदी की बढ़त स्वागतयोग्य तो है, पर इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि यह सब कुछ बाजार की जरूरतों को पूरा करने की प्रक्रिया का परिणाम है.

देश में संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो जाने तथा विदेशों में प्रचार-प्रसार के बावजूद हमारी भाषा ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान, प्रशासन और न्याय की भाषा नहीं बन सकी है. संविधान के निर्देशानुसार राज्य द्वारा हिंदी के विकास के लिए अनगिनत नीतियां और कार्यक्रम तो जरूर बनाये गये, पर उन्हें किस हद तक अमली जामा पहनाया जा सका तथा उनकी सफलताओं-असफलताओं की कितनी ठोस समीक्षा हुई,

इन पर गंभीरता से विचार की आवश्यकता है. संविधान में हिंदी भाषा को समृद्ध करने के कई प्रावधान हैं, पर विडंबना है कि सरकार ने जो भाषा का स्वरूप अपनाया, वह आम जनता की समझ से परे और बहुत क्लिष्ट है. यही स्थिति सरकारी अनुवाद की भी है. सरकारी कामकाज की हिंदी भाषा के मानकीकरण की प्रक्रिया पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है. इतना ही नहीं, सरकारी हिंदी की अशुद्धियां भी गंभीर समस्या हैं. सरकार के दस्तावेजों, विज्ञप्तियों और सूचना-पटों पर अशुद्ध हिंदी लिखे जाने के अनगिनत उदाहरण हैं. जनवरी, 1968 में भारतीय संसद ने संकल्प लिया था कि हिंदी के प्रसार एवं विकास के लिए भारत सरकार द्वारा गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा, लेकिन सच यह है कि ऐसे प्रयास खानापूर्ति से अधिक कोई भूमिका नहीं निभा सके. हमारे देश के हिंदीभाषी क्षेत्रों में कार्यपालिका और न्यायपालिका की भाषा हिंदी नहीं है. सरकारी कार्यालयों और अदालतों में अंगरेजी में ही कामकाज होता है. यह भी ध्यान रखा जाना चहिए कि हिंदीभाषी क्षेत्र में गरीबी, निरक्षरता और पिछड़ापन है. ऐसे में भाषा की यह दीवार एक पीड़ादायक विडंबना ही है. अगर प्रशासन और न्यायालय जनता से उसकी भाषा में संवाद कर पाने की स्थिति में नहीं हैं, तो फिर देश को उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक बनाने और सर्वांगीण विकास की ओर ले जाने के प्रयासों को कैसे सफल बनाया जा सकेगा? यही स्थिति शिक्षा के क्षेत्र में भी है. हमारे देश में आजादी के सात दशकों बाद भी उच्च और पेशेवर शिक्षा में हिंदी भाषा की पैठ नहीं बन सकी है. शोध और अनुसंधान में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के वादे तो सरकारें करती रही हैं, पर इस दिशा में कोई सुविचारित पहल नहीं की गयी है. हिंदी में स्तरीय साहित्येत्तर गद्य की बड़ी कमी है. ऐसे में हिंदी पढ़ने और उसमें रोजगार तथा बेहतर भविष्य तलाशने की प्रवृत्ति भी बहुत कम हुई है. आज हिंदी पढ़नेवाले अधिकतर ऐसे छात्र होते हैं, जिन्हें किन्हीं कारणों से अन्य विषयों में प्रवेश नहीं मिल पाता. यही हाल हिंदी माध्यम से पढ़नेवालों का है. शुद्ध हिंदी में बात करना हास्यास्पद हो गया है. हिंदी बोलना पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है. भाषा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर सरकारी लापरवाही का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2011 में हुई जनगणना के भाषा-संबंधी आंकड़े अभी तक सार्वजनिक नहीं किये जा सके हैं. हम चीन और जापान जैसे एशियाई देशों के उदाहरण से सीख ले सकते हैं, जिन्होंने अपनी भाषाओं को ज्ञान, विज्ञान, शोध और व्यापार की भाषा बनाया है. इन देशों ने आर्थिक प्रगति की जिन ऊंचाइयों को छुआ है, वह दुनिया के लिए मिसाल है. इन देशों की विकास की भाषा उनकी भाषाएं ही हैं. हिंदी में भी क्षमता है, पर इसके लिए सही नियत और समुचित नीतियों की आवश्यकता है. सरकार और समाज को इन बिंदुओं पर आत्ममंथन कर बेहतरी के लिए ठोस उपाय करने की जरूरत है. मातृभाषा का हाशिये पर जाना अपनी जड़ों से दूर जाना है. जब हमारी जड़ें ही कमजोर होंगी और हमारे प्रयासों का चरित्र व्यापक और समावेशी नहीं होगा, तो हमारी यात्रा दिशाहीन ही होगी. अगर हमने इन बातों की चिंता नहीं की, तो भविष्य को संवारने के हमारे मंसूबे कतई फलीभूत नहीं हो सकेंगे.

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