आदिवासी भाषाओं पर मंडराते खतरे

गंगा सहाय मीणा सहायक प्रोफेसर, जेएनयू यूनेस्को के इंटरेक्टिव एटलस के अनुसार, भारत की कई भाषाएं गंभीर खतरे में हैं. आंकड़े कह रहे हैं हिंदी भारत की सबसे बड़ी और ताकतवर भाषा के रूप में लगातार स्थापित हो रही है. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, जहां भारत की जनसंख्या में 1971 से 2001 के बीच […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 15, 2015 6:06 AM

गंगा सहाय मीणा

सहायक प्रोफेसर, जेएनयू

यूनेस्को के इंटरेक्टिव एटलस के अनुसार, भारत की कई भाषाएं गंभीर खतरे में हैं. आंकड़े कह रहे हैं हिंदी भारत की सबसे बड़ी और ताकतवर भाषा के रूप में लगातार स्थापित हो रही है.

जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, जहां भारत की जनसंख्या में 1971 से 2001 के बीच तीन दशकों में क्रमशः 24.66, 23.87 व 21.54 प्रतिशत दशकीय वृद्धि हुई, वहीं हिंदी को अपनी मातृभाषा बतानेवालों की संख्या में इस बीच क्रमशः 27.12, 27.84 और 28.08 प्रतिशत वृद्धि हुई. 1971 में जहां हिंदी को अपनी मातृभाषा बतानेवाले लगभग 20 करोड़ लोग थे, वहीं 2001 में इनकी संख्या 42 करोड़ हो गयी. यानी कुल 108 प्रतिशत वृद्धि.

यूनेस्को के इंटरेक्टिव एटलस के अनुसार, भारत की आदिवासी भाषाएं सबसे ज्यादा खतरे में हैं. संविधान सभा के सदस्य जयपाल सिंह ने तीन आदिवासी भाषाओं को 8वीं अनुसूची (तब अनुसूची 7 ‘क’) में शामिल करने की मांग की थी- गोंडी, मुंडारी और उरांव या कुडुख. ये तीनों बड़ी आदिवासी भाषाएं हैं.

इनको सम्मानजनक स्थान देने के बजाय हिंदी आदि बड़ी भाषाओं ने इन्हें नुकसान पहुंचाने का काम किया है. जहां हिंदी ने 1971 से 2001 के बीच तीन दशकों में कुल 108 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, वहीं गोंडी ने 60 प्रतिशत, मुंडारी ने 37 प्रतिशत और कुडुख ने 41 प्रतिशत वृद्धि की. ये तीनों आदिवासी भाषाएं ‘हिंदी क्षेत्र’ में हैं.

इनके अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती इसलिए पैदा हो गयी है, क्योंकि बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा दी जा रही है, जबकि शिक्षाशास्त्री और मनोविज्ञानी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की वकालत करते हैं. इन तीनों भाषाओं का संबंध भारतीय आर्यभाषा परिवार से भी नहीं है, जिससे कि हिंदी का है. गोंडी और कुडुख द्रविड़ भाषा परिवार की हैं और मुंडारी आस्ट्रो-‍एशियाटिक परिवार की.

हिंदी आदि बड़ी भाषाओं की वृद्धि का संबंध हमारी व्यवस्था से है, जो सत्ता के केंद्रीकरण में यकीन करती है.

हिंदी भी इस केंद्रीकरण का साधन बनी हुई है. कुछ लोगों द्वारा हिंदी और संस्कृत का अनिवार्य रिश्ता बना दिया गया. संविधान (अनुच्छेद 351) में प्रावधान किया गया कि हिंदी खुद को समृद्ध करने के लिए प्रधानतः संस्कृत से शब्द लेगी. यानी मृतप्राय संस्कृत की उत्तराधिकारी बन गयी हिंदी. दोनों के विकास के नाम पर करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं. इसके विपरीत आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के लिए सरकार के पास कोई बजट नहीं है.

उनको सम्मानजनक दर्जा तक नहीं दिया गया. संस्कृत का संबंध जाति और वर्ण विशेष से रहा है और यह अपनी प्रकृति में विभिन्न सामाजिक विभेदों का समर्थन करती दिखती है. अनुदार भाषा होने की वजह से ही संस्कृत मृतप्राय हो गयी है. जबकि संस्कृत से भी पुरानी आदिवासी भाषाएं समतामूलक समाज की समर्थक रही हैं. हमारी तमाम स्मृतियां मातृभाषाओं में संरक्षित हैं.

आदिवासी संदर्भ में मातृभाषाओं यानी आदिवासी भाषाओं का अलग महत्व है. वे आदिवासियों के अस्तित्व की पहचान हैं. उनमें ज्ञान की पूरी एक वैकल्पिक परंपरा मौजूद है. उनको खतरा पूरी परंपरा को खतरा है.

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