चुनावी बाढ़ में सूखे का समाचार
चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस हम सारी बातों पर बहस नहीं करते. बहस का विषय वही बातें बनती हैं, जिन्हें महत्वपूर्ण मान कर समाचार के रूप में परोस दिया गया हो. एक समय में एक ही जगह अनेक घटनाएं हो रही होती हैं और वे समान रूप से महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन सबके भाग्य […]
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
हम सारी बातों पर बहस नहीं करते. बहस का विषय वही बातें बनती हैं, जिन्हें महत्वपूर्ण मान कर समाचार के रूप में परोस दिया गया हो. एक समय में एक ही जगह अनेक घटनाएं हो रही होती हैं और वे समान रूप से महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन सबके भाग्य में समाचार होना नहीं लिखा रहता.
जो घटनाएं समाचार बनने से रह जाती हैं, वे हमारी चिंता के दायरे से भी बाहर होती हैं. यहां ‘हम’ शब्द पर भी ठहर कर सोचें. यह ‘हम’ समुदाय का सूचक है और इसीलिए यह खास है. इस ‘हम’ का निर्माण समाचारों के जरिये ही होता है.
समाचार अपने पढ़े जाने के साथ आपस में एक-दूसरे से अनजान पाठकों के बीच साझेपन की भावना कायम करता है. यह भावना एक आभासी समुदाय का निर्माण करती है. जो बातें समाचार नहीं बन पातीं, उनका कोई समुदाय भी नहीं बनता, सो वे समुदाय की चिंता का विषय भी नहीं बनतीं. इसलिए, समाचाराें से बाहर होना पूरे समुदाय की चिंता से बाहर होना है.
मसलन, सवाल पूछें कि बिहार के सार्वजनिक जीवन के लिहाज से अभी सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है. ज्यादातर लोग कहेंगे बिहार विधानसभा चुनावों से जुड़ी गतिविधियां फिलहाल बिहार के लिहाज से सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं. यह एक हद तक सही भी है. आखिर देश की आबादी का तकरीबन दसवां हिस्सा अपने हितों की रक्षा के लिए एक सरकार चुनने जा रहा है.
इस अर्थ में बिहार के चुनाव तकरीबन 10 करोड़ की आबादी की राजनीतिक नियति का सवाल है. अचरज नहीं कि बिहार से आनेवाले समाचारों में सबसे टहकार समाचार सीटों के बंटवारे और नेताओं के रूठने-मानने से जुड़े हैं या फिर वे ओपनियन पोल के निष्कर्ष बताते समाचार हैं कि किस नेता की छवि मुख्यमंत्री के रूप में सबसे ज्यादा वोट-बहारन साबित हो सकती है या फिर कौन सा गंठबंधन फिलहाल बढ़त बनाता दिख रहा है.
लेकिन, क्या चलती चुनाव-चर्चा के बीच कुछ ऐसा भी है, जो ठीक चुनाव के समाचारों जितना ही महत्वपूर्ण है, पर जिसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है, कोई समाचार नहीं है, जो बहस से बाहर है और बिहार नाम के राजनीतिक समुदाय की चिंताओं से एकबारगी बाहर हो चला है? सवाल करें कि खेती-किसानी और मनीआॅर्डर इकॉनॉमी के सहारे जीनेवाले बिहार के कितने जिलों को इस साल मॉनसून ने दगा दिया है और उत्तर आपके सामने स्पष्ट हो जायेगा.
क्या आपको भोजपुर, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और मधुबनी में होने जा रहे चुनावी दंगल की चर्चा के बीच कभी यह ख्याल आया कि सितंबर बीतने को है, लेकिन इन जिलों में बारिश की मात्रा लगभग 50 प्रतिशत से भी कम रही है. क्या पहले पन्ने पर छपे किसी समाचार की शीर्ष पंक्ति ने चीख कर आपको बताया कि बिहार में कम से कम 19 जिले सूखे की मार से कराह रहे हैं और इन जिलों में एक-चौथाई से लेकर दो-तिहाई तक कम बारिश हुई है?
सूखे का सवाल दरअसल बिहार की खेती-किसानी का सवाल है, बिहार की अधिसंख्य आबादी के भीतर व्यापी गरीबी और पलायन का सवाल है. सूखे का सवाल प्रकारांतर से सामाजिक सीढ़ी पर विराजमान मंझोली और निचली जातियों की जीविका और सशक्तीकरण का सवाल है. बिहार के विकास की बात करते हुए आप सूखे के सवाल से मुंह नहीं चुरा सकते. अगर आपके बिहार की विकास-चर्चा में सूखे का सवाल शामिल नहीं है, तो फिर वह चर्चा बिहार के लिए बेमानी है.
जरा सोचें, चुनाव-चर्चा में बिहार की विकास-चर्चा को किस तरह गढ़ा जा रहा है. नामचीन पत्रकार से लेकर दिग्गज नेता तक कह रहे हैं कि बिहार का राजनीतिक भविष्य नौजवान तय करेंगे. ‘नौजवान’ कहते ही इसका अर्थ हो जाता है- वह व्यक्ति जो अपना भविष्य पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-धंधे, और शहरों में देखता हो. हमारे राजनीतिक मानस में ‘नौजवान’ शब्द ‘किसान’ शब्द का विलोम बन चला है और पूरे देश में चलनेवाली राजनीति का सबसे बड़ा संकट यही है.
यह मानस ‘किसान’ को देश के राजनीतिक भविष्य का नियंता नहीं मानता, किसानी में देश का भविष्य भी नहीं देखता. और ठीक इसी कारण मांस बेचने पर पाबंदी और स्कूल में गीता-रामायण पढ़ने पर रजामंदी जैसी बातें समाचार बनती और बहस के काबिल मानी जाती हैं, लेकिन सूखे और किसानी का सवाल नहीं.
उस घड़ी भी सूखे के सवाल को समाचारों से बाहर रखा जाता है, जब देश के 640 जिलों में से 283 जिले सूखे की चपेट में हों और इन जिलों में मौसमी बारिश में 20 से लेकर 90 प्रतिशत की कमी आयी हो.