क्या पार्टियां युवाओं को रिझा पायेंगी?
।।संजय कुमार।।(राजनीतिक विश्लेषक एवं सीएसडीएस में फेलो)जो लोग अभी से मान कर चल रहे हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट डालनेवाले 12 करोड़ युवा मतदाता निर्णायक भूमिका निभायेंगे और नतीजे को बदल देंगे, मुङो लगता है कि वे भारतीय राजनीति की वस्तुस्थिति से पूरी तरह वाकिफ नहीं है. यह सही है […]
।।संजय कुमार।।
(राजनीतिक विश्लेषक एवं सीएसडीएस में फेलो)
जो लोग अभी से मान कर चल रहे हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट डालनेवाले 12 करोड़ युवा मतदाता निर्णायक भूमिका निभायेंगे और नतीजे को बदल देंगे, मुङो लगता है कि वे भारतीय राजनीति की वस्तुस्थिति से पूरी तरह वाकिफ नहीं है. यह सही है कि अगले चुनाव में पहली बार वोट डालने वाले मतदाताओं की संख्या काफी बड़ी है.
नये मतदाताओं का अनुमान जनगणना के आंकड़ों पर आधारित है. माना जा रहा है कि पिछले पांच वर्षो के दौरान जो लोग वोट डालने की न्यूनतम आयु 18 साल को पार कर चुके हैं, वे 2014 के चुनाव में पहली बार वोट डालेंगे. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि नये मतदाताओं की बड़ी संख्या पहली बार सामने नहीं आ रही है. पांच साल बाद होनेवाले सभी चुनावों, वे विधानसभाओं के चुनाव हों या लोकसभा के, के दौरान मतदाता सूची में बड़ी संख्या में नये मतदाता जोड़े जाते हैं. यह आंकड़ा कभी थोड़ा कम रहता है, तो कभी थोड़ा ज्यादा. यह सही हो सकता है कि 2009 के लोकसभा चुनावों की तुलना में 2014 के लोकसभा चुनाव में नये मतदाताओं की संख्या कुछ ज्यादा होगी. इसका कारण मतदाताओं के पंजीकरण की प्रक्रिया को आसान बनाया जाना भी है, जिसके लिए निर्वाचन आयोग की सराहना की जानी चाहिए. लेकिन क्या 2009 के लोकसभा चुनाव की तुलना में 2014 के चुनाव में मतदाताओं की संख्या बढ़ने को बड़ा बदलाव मानना सही होगा? यह भी तय है कि 2009 की तुलना में 2014 में नये मतदाताओं की संख्या कुछ ही अधिक होगी. तो फिर अभी से क्यों माना जाये कि नये मतदाता निर्णायक भूमिका निभाएंगे?
मेरा आशय यह नहीं है कि पहली बार वोट डालनेवाले युवा मतदाताओं की भारतीय चुनाव में कोई भूमिका नहीं होती है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनावों के जरिये ऐतिहासिक बदलाव लाने में युवा मतदाताओं की उल्लेखनीय भूमिका रही है. युवा मतदाता 1975-77 के दौरान आपातकाल विरोधी अभियान की रीढ़ साबित हुए थे. नतीजे के रूप में 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा था. 1989 के आम चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह को मिले व्यापक समर्थन में भी युवाओं की अहम भूमिका रही थी. असम में 1985 के विधानसभा चुनावों के बाद एक नयी पार्टी सत्ता में आयी और मुख्यत: युवाओं की ही सरकार बनी थी. इन नतीजों के आधार पर कहा जा सकता है कि पहली बार वोट देनेवाले युवा मतदाता महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन इन नतीजों का विश्लेषण करने पर यह कहना कठिन होगा कि पहली बार वोट डालनेवाले युवाओं ने किसी एक पार्टी के पक्ष में बड़ी तादाद में मतदान किया था.
पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रमुख पार्टियों को मिले मतों के आंकड़ों पर नजर डालें. इस चुनाव में कांग्रेस को कुल 11.9 करोड़, भाजपा को 7.8 करोड़, बसपा को 2.6 करोड़, जबकि सीपीएम को कुल 2.2 करोड़ मत मिले थे. जाहिर है पिछले आम चुनाव में सबसे ज्यादा मत हासिल करनेवाली पार्टी (कांग्रेस) को मिले कुल मतों के आंकड़े को देख कर यह भ्रम हो सकता है कि मतदाता सूची में बड़ी संख्या में शामिल होने जा रहे नये मतदाता भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं. यानी वे किसी भी पार्टी की जीत या हार में निर्णायक साबित हो सकते हैं. लेकिन मेरा आकलन है कि जो लोग अभी से ऐसा मान कर चल रहे हैं, वे भूल कर रहे हैं. जो पार्टियां इस रणनीति पर काम करेंगी कि उसे मुख्यत: युवाओं के वोट बैंक पर ही फोकस करना है, खास कर पहली बार वोट डालने जा रहे युवाओं पर, उनके चुनावी नतीजे उम्मीद के विपरीत हो सकते हैं, क्योंकि भारतीय चुनावों में युवा शायद ही कभी अपनी ‘युवा’ पहचान के आधार पर वोट करते हैं.
भारत में आम मतदाताओं की पहचान में कई तत्व जुड़े होते हैं. इनमें खास कर जाति, वर्ग, क्षेत्र और धर्म के अलावा लिंग आधारित पहचान शामिल होते हैं. खास कर जाति और वर्ग की उनकी पहचान की चुनावी राजनीति में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती रही है. कुछ मामलों में वे क्षेत्रीय और धार्मिक पहचान के आधार पर भी बड़ी संख्या में मतदान करते देखे गये हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों के चुनावों के दौरान सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) की ओर से किये गये सर्वे के आंकड़े साफ संकेत करते हैं कि लिंग और आयु के आधार पर भारतीय मतदाताओं का ठोस रुझान कभी नहीं बना है. शायद ही किसी विधानसभा या लोकसभा चुनाव में महिलाओं ने किसी एक पार्टी के पक्ष में बड़ी संख्या में मतदान किया है. यहां तक कि महिलाओं का ठोस रुझान उन पार्टियों के पक्ष में भी नहीं देखा गया है, जिनका नेतृत्व किसी महिला के हाथ में रहा है. उदाहरण के रूप में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश में मायावती, तमिलनाडु में जयललिता और दिल्ली में शीला दीक्षित के नाम गिनाये जा सकते हैं.
देश में 1996 से अब तक हुए पांच लोकसभा चुनावों के दौरान किये गये सव्रे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि युवाओं ने कभी किसी एक पार्टी के पक्ष में बड़ी संख्या में मतदान नहीं किया है. किसी भी दूसरे आयुवर्ग के मतदाताओं की तरह ही, युवाओं के मत भी विभिन्न पार्टियों में विभाजित हुए हैं. इतना ही नहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान जिन 140 लोकसभा क्षेत्रों में युवा उम्मीदवार (25 से 40 वर्ष आयुवर्ग के) जीते या दूसरे स्थान पर रहे हैं, वहां तो युवा मतदाताओं का मतदान प्रतिशत भी औसत से कम रहा है. जाहिर है, प्रमुख पार्टियों के युवा उम्मीदवार भी युवा मतदाताओं को लुभा पाने में नाकाम रहे हैं.
हालांकि उम्मीद की कुछ किरणों दिखती हैं. खास कर इसलिए कि पिछले कुछ वर्षो में चुनाव सुधार, राजनीति की स्वच्छता, राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल जैसे मुद्दों पर युवाओं का समूह एक साथ खड़े होने की कोशिश करता दिखा है. हालांकि राजनीतिक पार्टियां यदि यह उम्मीद करेंगी कि अपने युवा नेताओं को आगे बढ़ा कर ही वे पहली बार मतदान करने जा रहे युवा मतदाताओं का वोट हासिल कर सकती हैं, तो मुङो लगता है कि यह उनकी भूल होगी. बड़ी संख्या में युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए उन्हें कुछ ठोस वादे करने होंगे, खास कर राजनीति को भ्रष्टाचार और दागियों से मुक्त करने की दिशा में, और इन वादों को अपने चुनावी नारों तथा भाषणों में भी प्रमुखता से शामिल करना होगा. पार्टियां इस रणनीति पर अमल करके ही नये मतदाताओं को बदलाव की कहानी लिखने के लिए तैयार कर सकती हैं.