हिंदी साहित्य पाठक विरोधी है!
प्रभात रंजन कथाकार हाल ही में हिंदी के एक प्रसिद्ध लोकप्रिय लेखक ने बातचीत में मुझसे एक महत्वपूर्ण बात कही- ‘हिंदी दुनिया की अकेली ऐसी भाषा है, जिसके तथाकथित ‘बड़े’ लेखक अपने पाठकों से नफरत करते हैं.’ सोचते हुए लगा कि उनकी बात में कुछ तो दम है. हिंदी सच में ऐसी भाषा की तरह […]
प्रभात रंजन
कथाकार
हाल ही में हिंदी के एक प्रसिद्ध लोकप्रिय लेखक ने बातचीत में मुझसे एक महत्वपूर्ण बात कही- ‘हिंदी दुनिया की अकेली ऐसी भाषा है, जिसके तथाकथित ‘बड़े’ लेखक अपने पाठकों से नफरत करते हैं.’ सोचते हुए लगा कि उनकी बात में कुछ तो दम है.
हिंदी सच में ऐसी भाषा की तरह लगने लगती है, जिसके केंद्र में लोकप्रिय लेखन से बैर-भाव है. इसका जो साहित्यिक परिसर है, वह लोकप्रिय लेखन के लिए संकीर्ण होता गया है.
दुख की बात यह है कि ऐसा हिंदी साहित्य के आरंभिक दौर से ही नहीं था. आजादी से पहले और बाद के दौर में हिंदी के गंभीर लेखक भी पाठकों में खासे लोकप्रिय थे और लोकप्रिय, जासूसी धारा के लेखकों के लिए वैसा हिकारत का भाव नहीं था. हिंद पॉकेट बुक्स ने जब पहली बार पेपरबैक सीरीज की शुरुआत की थी, तो उसमें बच्चन की मधुशाला से लेकर कमलेश्वर, अमरकांत के उपन्यासों के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा या कर्नल रंजीत के उपन्यास भी साथ-साथ प्रकाशित होते थे.
उनको एक रुपये-दो रुपये की कीमतों में एक सेट में बेचा भी जाता था. शिवानी जैसी लेखिकाएं भी थीं, जिनका पाठक वर्ग दोनों तरफ था. 70-80 के दशक तक हिंदी का लेखक स्वतंत्र लेखन के सहारे गृहस्थी की गाड़ी बखूबी खींच लेता था, क्योंकि पाठक उसकी किताबों को खरीद कर पढ़ता था. हालात 90 के दशक में बदले.
अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो रहा था, हिंदी के साहित्यिक वर्ग ने बाजारवाद के नाम पर उसका विरोध शुरू किया. पाठकों तक पहुंचने के हर प्रयास को ‘बिकना’ माना जाने लगा. उसका परिसर सिमटता गया और वह प्रतिरोध का परिसर बन कर रह गया. हिंदी का लगभग सारा लेखन आलोचकों या सत्ता केंद्रों को प्रभावित करने के लिए होने लगा.
दुर्भाग्य की बात है कि इसी दौर में हिंदी का सर्वाधिक विस्तार हुआ, हिंदी प्रदेशों में साक्षरता बढ़ रही थी, अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही थी, लेकिन साहित्य ने ऐसे दौर में आम पाठकों तक पहुंचने से सदा गुरेज किया. आम जन का साहित्य रचनेवाले लेखक जन-जन से कटते चले गये. जिस दौर में हिंदी के ‘मास’ का विस्तार हो रहा था, उस दौर में हिंदी अपना ‘क्लास’ बनाने में लगी रही.
यह सच में चिंता की बात है कि इस समय जब हिंदी लेखकों के परिसर का विस्तार होता जा रहा है, मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग पेशे से जुड़े लेखक सामने आ रहे हैं. लेकिन उनके लेखन के केंद्र में भी अभिजन पाठक वर्ग है. वह भी हिंदी के उस विशाल पाठक वर्ग से दूर है, जो एक जमाने में श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ और गुलशन नंदा के ‘झील के उस पार’ को समान चाव से पढ़ता था.
जब तक उस खोये हुए पाठक वर्ग की रुचियों को ध्यान में रख कर लेखन नहीं किया जायेगा, तब तक हिंदी का साहित्यिक परिसर सुख की ऐसी स्वनिर्भर दुनिया की तरह बना रहेगा, जिसमें पाठकों के प्रति लेखक की उदासीनता बनी रहेगी. वही उदासीनता जिसकी तरफ उस दिन उस वरिष्ठ लोकप्रिय लेखक ने ध्यान दिलाया था!