आरक्षण पर हड़बड़ी

किसी सदन में कोई विधेयक बहस के बिना पारित हो जाये, तो सामान्य समझ यही कहता है कि विपक्ष हाशिये पर है और सत्तापक्ष ने इसे बहुमत के जोर से पारित करा लिया. इसकी वजह यह भी हो सकती है कि सरकार को किसी खास मुद्दे पर खुद को गंभीर दिखाने की हड़बड़ी हो. लगता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 24, 2015 6:00 AM
किसी सदन में कोई विधेयक बहस के बिना पारित हो जाये, तो सामान्य समझ यही कहता है कि विपक्ष हाशिये पर है और सत्तापक्ष ने इसे बहुमत के जोर से पारित करा लिया. इसकी वजह यह भी हो सकती है कि सरकार को किसी खास मुद्दे पर खुद को गंभीर दिखाने की हड़बड़ी हो.
लगता है, राजस्थान सरकार के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है, जो उसने गुर्जर और घुमंतू जातियों के लिए पांच फीसदी, जबकि सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए 14 फीसदी आरक्षण का विधेयक बिना बहस के पारित कराया है.
राजस्थान विधानसभा में हंगामे के बीच 37 मिनट के भीतर पांच विधेयक पारित हुए, जिनमें आरक्षण विधेयक भी हैं. इस विधेयक में पर्याप्त सोच-विचार का आधार नहीं दिखता, क्योंकि इसके कानून बनने पर राज्य में आरक्षण 68 प्रतिशत तक पहुंच जायेगा, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा बतायी 50 फीसदी सीमा का उल्लंघन है. राजस्थान हाइकोर्ट भी 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को सन् 2009 और 2013 में असंवैधानिक करार दे चुका है.
हालांकि यह विधेयक संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल होने पर कानूनी पेच में फंसने से बच सकता है, पर देश की संसद के पास ढेर सारे विधायी कार्य लंबित हैं. ऐसे में संभव है कि इस विधेयक को नौवीं अनुसूची में शामिल होने से पहले ही कोर्ट में चुनौती मिल जाये.
राजस्थान सरकार की मजबूरी यह है कि राज्य में प्रभावशाली गुर्जर समुदाय आरक्षण के लिए लंबे समय से आंदोलन कर रहा है. हाल में गुजरात में पटेलों के आरक्षण आंदोलन से उसे संबल मिला है. आरक्षण के दायरे से बाहर के कई समुदाय आर्थिक आधार पर आरक्षण मांग रहे हैं. ऐसे में कई राज्यों की सरकारें आरक्षण की मांग और कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा के बीच तालमेल बिठाने में खुद को असहाय महसूस कर रही हैं.
दूसरी ओर, पिछड़ी और दलित जातियों के बीच कुछेक समुदायों को अन्य वंचित समुदायों के मुकाबले आरक्षण आधारित सामाजिक न्याय का फायदा ज्यादा पहुंचा है. इससे अन्य दलित और पिछड़ी जातियों में असंतोष है. हकीकत यह भी है कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के बरक्स निजी क्षेत्र के तेजी से बढ़ने के चलते आरक्षण का उपाय समुदायों के बीच असमानता को पाटने में नाकाफी साबित हो रहा है.
ऐसे में सरकारों को चाहिए कि आरक्षण संबंधी प्रावधानों की उपलब्धियों और खामियों पर गंभीर विमर्श कराये, जिससे सामाजिक न्याय के बड़े उद्देश्य को पूरा करने के लिए वक्त के अनुकूल नीतियां तैयार की जा सकें. इस मामले में हड़बड़ी असंतोष को और भड़का सकती है.

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