संसद को सोचना है
सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें मांग की गयी थी कि वह संसद को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करे. मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षतावाली खंडपीठ ने स्पष्ट कहा कि न्यायापालिका द्वारा विधायिका के कामकाज पर टिप्पणी या उसकी निगरानी करने की कोशिश अधिकार-क्षेत्र का उल्लंघन करना होगा. […]
सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें मांग की गयी थी कि वह संसद को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करे. मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षतावाली खंडपीठ ने स्पष्ट कहा कि न्यायापालिका द्वारा विधायिका के कामकाज पर टिप्पणी या उसकी निगरानी करने की कोशिश अधिकार-क्षेत्र का उल्लंघन करना होगा.
अदालत ने यह भी कहा कि संसद के सदस्यगण अनुभवी और समझदार हैं तथा उन्हें अपनी जिम्मेवारी का अहसास है. इस तरह संवैधानिक व्यवस्था का अनुपालन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने संसद को भले ही कुछ कहने से मना कर दिया, पर सुनवाई के दौरान संसद में व्यवधान पर राष्ट्रपति की चिंता जब बहस में आयी, तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सांसद देश के प्रथम नागरिक की बात पर जरूर ध्यान देंगे. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च है, क्योंकि वह जनता के प्रतिनिधियों की संस्था है. यह संस्था ही नीतियां बनाती है और सरकार के कामकाज की निगरानी करती है.
लेकिन, बीते कुछ वर्षों से हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही में व्यवधान की एक परिपाटी बन गयी है. जनहित एवं देशहित के महत्वपूर्ण विधेयक व प्रस्ताव समुचित बहस के बिना ही पारित होने लगे हैं. हंगामे और व्यवधान के कारण आवश्यक विधेयक या तो पारित नहीं हो पाते या फिर उन्हें आनन-फानन में नाम-मात्र की बहस के साथ पारित कर दिया जाता है. जब कामकाज होता भी है तो कुछ मौकों को छोड़ कर ज्यादातर समय बहुत सी सीटें खाली रहती हैं.
ऐसा भी देखा जाता है कि सरकार की ओर से जवाब देते समय सवाल पूछनेवाला सदस्य ही सदन में मौजूद नहीं होता. कोई कानून लागू होने के बाद तभी सफल हो सकता है, यदि उसे बनाते समय उसमें विभिन्न दृष्टिकोण समाहित किये गये हों और उसकी खूमियों-खामियों पर भली-भांति बहस की गयी हो. देश की सवा अरब आबादी के जीवन पर असर डालनेवाले कानून बिना बहस के पारित होने के नतीजे काफी गंभीर हो सकते हैं. संसद में व्यवधान देश के विकास की राह में बड़ा अवरोध पैदा करता है.
पिछले सत्र में अवरोधों के कारण भूमि अधिग्रहण कानून, वस्तु एवं सेवा कर कानून और श्रम-सुधारों से संबंधित अधिनियमों पर चर्चा नहीं की जा सकी. इस वजह से आर्थिक सुधार के जरूरी उपाय अधर में लटके हैं. मौजूदा लोकसभा से पहले 15वीं लोकसभा में भी कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर पांच मिनट से कम समय में बहस पूरी करनी पड़ी थी.
पिछली लोकसभा विगत ढाई दशकों की सबसे अशांत लोकसभा थी. लेकिन, वर्तमान लोकसभा के करीब डेढ़ सालों के अनुभवों से संकेत मिलते हैं कि इसमें 15वीं लोकसभा का रिकॉर्ड टूट सकता है. हालांकि प्रारंभिक चार सत्रों में कामकाज सुचारु रूप से संपन्न हुआ था. बजट सत्र में तो तय अवधि से 22 फीसदी अधिक समय तक कार्यवाही चली थी.
परंतु, पिछला पूरा सत्र पूर्ववर्ती चार सत्रों के शांत माहौल को ध्वस्त करते हुए व्यावधानों की भेंट चढ़ गया. इस दौरान लोकसभा ने मात्र तीन विधेयक पारित किये, जबकि राज्यसभा में एक भी विधेयक पारित नहीं हो सका. पिछले सत्र में लोकसभा के लिए निर्धारित समय में 50 फीसदी और राज्यसभा के लिए नियत समय में 90 फीसदी का नुकसान हुआ था.
संसद में कामकाज का एक तो सीधा नुकसान उस बजट में होता है जो संसद पर खर्च होता है, लेकिन विधेयकों के लंबित होने और प्रस्तावों के बिना बहस पारित होने के जो नुकसान हैं, वे बहुत व्यापक हैं. वस्तु और सेवा कर अधिनियम के लागू हो जाने से हमारे सकल घरेलू उत्पादन में जो वृद्धि संभावित थी, अब उसके लिए इंतजार करना होगा. इसी प्रकार संतुलित भूमि अधिग्रहण कानून की कमी के कारण विकास परियोजनाओं पर नकारात्मक असर पड़ा है.
मॉनसून सत्र में जो कुछ काम हो सका, उसमें 40 हजार करोड़ के पूरक अनुदान मांगों का पारित होना भी था. इस पर लोकसभा में मात्र दो घंटे चर्चा हुई और राज्यसभा ने इस पर बगैर चर्चा के सहमति दे दी. वर्ष 2012 में एक आकलन किया गया था कि सत्र के दौरान संसद पर हर मिनट ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं. आज यह खर्च बढ़ा ही होगा.
संसद में टोका-टोकी या सरकार और विपक्ष के बीच किसी अहम मसले पर कुछ देर के लिए टकराव की स्थिति संसदीय परिपाटी का हिस्सा हैं. लेकिन, कामकाज पर ऐसी गतिविधियों के नकारात्मक परिणाम न पड़ने देने की जिम्मेवारी संसद सदस्यों की ही है, जिन्हें देश की जनता बहुत आशाओं और अपेक्षाओं के साथ अपना प्रतिनिधि बना कर सबसे बड़ी पंचायत में भेजती है.
सुचारू रूप से कामकाज के लिए सरकार और विपक्ष को सहयोग करना चाहिए तथा आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीति से ऊपर उठ कर देशहित में काम करना चाहिए. उम्मीद है कि हमारे जन-प्रतिनिधि सुप्रीम कोर्ट की भावना को समझेंगे और आगामी सत्रों में उनके रवैये में सकारात्मक बदलाव दिखेगा.