लगन और मेहनत के बिना सपनों को हकीकत में नहीं बदला जा सकता है. विपरीत परिस्थितियों और संसाधनों के अभाव में भी प्रतिभाओं के परवान चढ़ने के अनगिनत उदाहरण हैं. लेकिन इस दौर की एक त्रासद सच्चाई यह भी है कि हमारी नयी पीढ़ी का एक हिस्सा येन-केन-प्रकारेण चमक-दमक की रंगीनियों को हासिल कर लेना चाहता है. ग्लैमर, प्रसिद्धि और धन के लालच में वह अपराध का सहारा लेने में नहीं हिचक रहा है.
कुछ दिन पूर्व दिल्ली में निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि से आनेवाले एक किशोरवय लड़के और एक लड़की ने पैसों के लिए दूधमुंहे बच्चे की हत्या कर दी. इन दोनों को टेलीविजन के एक डांस शो में भाग लेने के लिए पैसों की जरूरत थी. एक ओर टेलीविजन सूचना और मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम बनकर उभरा है, वहीं उसने युवाओं-किशोरों में रातों-रात स्टार बन जाने की खोखली ललक भी पैदा की है. इस ललक से माता-पिता भी अछूते नहीं रहे हैं.
छोटे बच्चों से लेकर किशोर संतानों के कई अभिभावक उन्हें रियलिटी कार्यक्रमों में भेजने की हसरत रखते हैं. इसके लिए वे अपने बच्चों पर बेवजह दबाव भी डालने लगे हैं. इन कार्यक्रमों का मीडिया में जिस तरह का कवरेज होता है, उसने भी वास्तविकता से भरी रंगीनियों का एक आभासी आभामंडल तैयार किया है. कार्यक्रमों के अलावा महंगे मोबाइल फोन, कपड़े और वाहनों का लालच भी समाज में एक रोग की तरह पसर रहा है. टेलीविजन स्क्रीन से स्कूल-कॉलेजों के जलसों में आकर्षक दिखने की होड़ में बच्चे महंगे प्रसाधन सामग्रियों से लेकर दवाइयों तक का प्रयोग करने लगे हैं. कई मामलों में तो अभिभावक उन्हें समझाने-बुझाने के बजाय प्रोत्साहित ही करते हैं. अगर माता-पिता संतानों को सही बात कहते भी हैं, तो समाज में चकाचौंध से भरे उपभोक्तावाद का असर भी बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है.
मनचाहा मोबाइल या मोटरसाइकिल न खरीदने पर या डांटने पर बच्चों द्वारा खुदकुशी करने के मामले भी सामने आ चुके हैं. ऐसे में यह मीडिया समेत पूरे समाज की सामूहिक जिम्मेवारी बनती है कि हम एक ऐसा परिवेश निर्मित करें, जो बच्चों में बेहतर संस्कार पैदा करे और उन्हें एक संतुलित व्यक्तित्व के रूप में विकसित करे. ऐसा नहीं किया गया, तो हमारा भविष्य अंधकारमय होने के लिए अभिशप्त होगा.