14.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

पलायन को लेकर चाहिए नयी दृष्टि

अपने राज्य से पलायन कर आनेवाले मजदूर एक नये तरीके से गुलाम बनाये जा रहे हैं. वे वर्षों तक एक ही तनख्वाह पर काम करते हैं, बाजार दर से अधिक दाम पर सामान खरीदते हैं, मकान मालिक उनसे बिजली का किराया दस रुपया प्रति यूनिट तक वसूलते हैं. उन्हें जान-बूझ कर गरीब रखा जाता है. […]

अपने राज्य से पलायन कर आनेवाले मजदूर एक नये तरीके से गुलाम बनाये जा रहे हैं. वे वर्षों तक एक ही तनख्वाह पर काम करते हैं, बाजार दर से अधिक दाम पर सामान खरीदते हैं, मकान मालिक उनसे बिजली का किराया दस रुपया प्रति यूनिट तक वसूलते हैं. उन्हें जान-बूझ कर गरीब रखा जाता है. चुनावी-सरगर्मी में पलायन रोकने का सपना दिखानेवाले लोग इन सवालों पर चुप क्यों रहते हैं?

बिहार में चुनाव आते ही पलायन एक ऐसा मुद्दा बन जाता है, जैसे यह कोई प्लेग या मलेरिया हो. हमारे राजनीतिक दल कुछ भी बोलने लगते हैं और खुद को समझदार कहनेवाला तबका ऐसे दावे करने लगता है, जैसे उसने पलायन रोकने का टैबलेट खोज लिया हो. बीस साल के आर्थिक उदारीकरण ने देश में असीमित अवसर पैदा किये, जिसका लाभ बिहार के लोगों ने उठाया. गुजरात और पंजाब के लोग जब पलायन कर कामयाब होते हैं, तो उनका गुणगान होता है. लेकिन, वहीं जब बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग पलायन के बाद कामयाबी के झंडे गाड़ते हैं, तब उसे बीमारी की तरह पेश किया जाता है. शायद हमारे नेताओं ने भारत और दुनियाभर में बसे बिहारियों-यूपीवालों के बीच जाकर नारे लगवाने की संभावनाओं की तलाश नहीं की है. दशकों तक पत्रिकाओं के कवर पर पंजाब और गुजरात के कामयाब लोगों के किस्से छपे, लेकिन वहीं जब बिहार की बारी आयी, तो लोग पलायन को ही लानत भेजने लगे.

अगर बाकी प्रांतों के लिए पलायन उत्थान है, तो बिहार के लिए यही पलायन पतन की तरह क्यों पेश किया जाता है? क्या यह कोई साजिश है, जिससे बिहार के लोग बाहर न निकलें, कूपमंडूक बन कर रह जायें और वे तमाम अवसरों को गंवा दें? विकसित देशों में भी पलायन होता है. अभी तक विकास का कोई ऐसा मॉडल नहीं बना है, जो पलायन रोक देता हो और बाहरी लोगों को आमंत्रित न करता हो. इसलिए पलायन को लेकर हमें चुनावी मूर्खता से बचना चाहिए. महाराष्ट्र और गुजरात में खूब उद्योग लगने के दावे होते हैं, लगे भी हुए हैं, तो क्या पटेल समाज के लोग अमेरिका से अपने होटल बंद कर गुजरात आ गये? क्या वहां से पलायन बंद हो गया? उद्योग हर बीमारी का टैबलेट नहीं है. महाराष्ट्र और गुजरात में भी गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है. यहां सवाल यह भी होना चाहिए कि इतने उद्योग धंधे के बाद वहां हर महीने सैंकड़ों की संख्या में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? बिहार में क्यों आत्महत्या नहीं कर रहे?

बिहार में पलायन विरोधियों का एक सामाजिक सर्वे कीजियेगा. जिनके पास थोड़ी-बहुत जमीन है, वह नहीं चाहता कि ज्यादा कमाने बाहर जाये, क्योंकि उसकी खेती नहीं हो पाती. बिहार से बाहर जानेवालों को जितनी दिक्क्त नहीं हो रही है, उससे कहीं ज्यादा सवर्ण तबके को इनके बाहर जाने से दिक्कत होती है. आखिर पलायन रोकने का दावा करनेवाली किसी पार्टी ने कोई प्लान पेश किया है क्या? अगर हां, तो उसे बिहार ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के सामने पेश किया जाना चाहिए. इसलिए पलायन को लेकर रोना बंद कीजिए. पलायन रुकने से न तो गरीबी के सवाल खत्म हो जाते हैं और न ही जिंदगी के बाकी सवालों का जवाब मिल जाता है. हां, जरूर बिहार में बेहतर सिस्टम होना चाहिए, पर बिहारियों को पलायन करते रहना चाहिए. तभी वे अमेरिका में जाकर कंपनी खोलेंगे और मुंबई जाकर फिल्म बनायेंगे. बड़े सपने देखने हैं, तो पलायन भी कीजिए. बिहार में भी रहिए और बिहार से बाहर की भी सोचिए.

इसका एक दूसरा पहलू भी है. अगर किसी को बिहार के मजदूरों और कामगारों से वाकई प्यार है, तो उसे कोलकाता, गुवाहाटी, सूरत, लुधियाना, मुंबई, दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद और ग्रेटर नोएडा की मजदूर बस्तियों में जाकर उनका हाल पता करना चाहिए. आजकल इन जगहों से लोग चुनाव प्रचार के लिए बिहार भेजे जाते हैं. अब ये कौन जानता है कि ये अपने मन से आते हैं या डरा कर भेजे जाते हैं. अगर आपको चुनावों के दौरान ऐसे लोग मिलें, तो इनसे पूछियेगा कि वहां कितनी मजदूरी मिलती है, रहने की जगह पर साफ-सफाई क्यों नहीं होती, पानी और शौचालय की स्थिति क्यों नहीं है, और क्यों उन्हें मकान मालिक गुलाम बना कर रखते हैं? उनके दिल का हाल जानने के लिए उनसे यह सब जरूर पूछियेगा.

मजदूर बस्तियों में सौ-सौ कमरे बने हुए हैं. इन कमरों में बिहार ओड़िशा, बुंदेलखंड के लोग नारकीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं. जिस उद्योग का हम गुणगान करते हैं, वही इन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं देते. पेंशन और बीमा का पैसा हड़प लेते हैं. दिल्ली गुड़गांव में मैंने देखा है. मकान मालिक मजदूरों पर तरह-तरह की शर्तें थोपते हैं. उनसे कहते हैं कि आप किरायेदार तो हो, लेकिन आटा-दाल, तेल-नून जैसी बुनियादी जरूरत की चीजें भी हमारी ही दुकान से खरीदेंगे. मकान मालिक मजदूरों को सौ रुपये का सामान एक सौ दस रुपये में बेचता है. अगर कोई मजदूर दूसरी दुकान से कम दाम में कोई सामान ले आता है, तो उसका मकान मालिक उसके कमरे की चेकिंग करता है. उसे कमरे से निकाल दिया जाता है. यहां तक कि उसे मारा-पीटा भी जाता है.

अपने राज्य से पलायन कर आनेवाले मजदूर एक नये तरीके से गुलाम बनाये जा रहे हैं. वे वर्षों तक एक ही तनख्वाह पर काम करते हैं, बाजार दर से अधिक दाम पर सामान खरीदते हैं. तो फिर आप ही बताइये कि उसके पास क्या बचेगा? यही नहीं, मकान मालिक उनसे बिजली का किराया दस रुपया प्रति यूनिट तक वसूलते हैं. इतना तो देश का अमीर तबका भी नहीं देता है. उन्हें जान-बूझ कर गरीब रखा जाता है. चुनावी-सरगर्मी में पलायन रोकने का सपना दिखानेवाले लोग इन सवालों पर चुप क्यों रहते हैं?

अगर राजनीतिक दलों के कहने से बिहार में उद्योग लहलहानेवाला है, तो क्यों नहीं ये अन्य राज्यों के उद्योगों से कहते हैं कि मजदूरों को बेहतर मजदूरी दीजिए. लाखों की संख्या में बिहारी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती. उनका मतदाता पहचान पत्र तक नहीं बनने दिया जाता, क्योंकि वे चुनावी फैसलों को प्रभावित कर देंगे. मैंने तो कभी किसी नेता को उनके हक के लिए बोलते हुए नहीं सुना. हर पार्टी की सरकारें हर राज्य में बनती-बिगड़ती रहीं, लेकिन किसी ने उन इलाकों में बेहतर काम नहीं किया, जहां वे रहते हैं. इसलिए अब पलायन-पलायन रटने से अच्छा है कि उनके सम्मान की बात हो. अब सुनिश्चित किया जाये कि यह देश सभी का है. हर किसी को देश के किसी भी हिस्से में अपने हक से जाने, कमाने और बसने का अधिकार है.

रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार

RAVISH@ndtv.com

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें