उद्वेलित करती हैं उनकी कविताएं
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार कविता कहने के निराले अंदाज के लिए ख्यात हिंदी के महत्वपूर्ण कवि वीरेन डंगवाल (1947-2015) अपने जीवन में भी उतने ही खिलंदड़, मस्त, फक्कड़ और दोस्ताना थे. बड़ों के लिए वे वीरेन थे, तो छोटों के वीरेनदा. मिलते तो ‘प्यारे’ कह कर बड़े लाड़ से और गाल थपथपाना नहीं भूलते. इलाहाबाद […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
कविता कहने के निराले अंदाज के लिए ख्यात हिंदी के महत्वपूर्ण कवि वीरेन डंगवाल (1947-2015) अपने जीवन में भी उतने ही खिलंदड़, मस्त, फक्कड़ और दोस्ताना थे. बड़ों के लिए वे वीरेन थे, तो छोटों के वीरेनदा. मिलते तो ‘प्यारे’ कह कर बड़े लाड़ से और गाल थपथपाना नहीं भूलते. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकल कर वीरेनदा बरेली कॉलेज में हिंदी पढ़ाने लगे थे.
बाद में वे अमर उजाला के बरेली और कानपुर संस्करणों के स्थानीय संपादक और फिर सलाहकार रहे. बहुत अच्छे शिक्षक और पत्रकार वीरेनदा अपने अंतर की गहराइयों से कवि थे. उनकी पत्रकारिता में कविता बोलती थी, शिक्षण में भी और जीने का अंदाज तो कवितामय था ही. इसीलिए वे सभी के बहुत लोकप्रिय थे, जिंदादिल थे. कैंसर के तीन-चार हमलों के बावजूद उनका जीवट बना रहा. बिल्कुल अशक्त हो जाने तक वे कविता कहते रहे.
उनकी कविताएं अपने अलग ही अंदाज में खनकती, बोलती और उद्वेलित करती हैं. उन्हें पढ़ते हुए कभी निराला याद आते हैं, कभी त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन. बहुत सहज ढंग से दिल से निकली और हमसे बतियाती कविताएं. कबाड़ी की आवाज में पुकारती हुई या घर को लौटते फौजी राम सिंह को संबोधित करती हुई और कभी तो सीधे-सीधे पत्रकारों को धिक्कारती हुई.
उनकी ‘पत्रकार महोदय’ कविता मुझे अकसर याद आती है- ‘इतने मरे’/ यह थी सबसे आम, सबसे खास खबर/ छापी भी जाती थी सबसे चाव से/ जितना खून सोखता था/ उतना ही भारी होता था अखबार/ अब संपादक/ चूंकि था प्रकांड बुद्धिजीवी/ लिहाजा अपरिहार्य था जाहिर करे वह भी अपनी राय…’
कुछ विदेशी कविताओं का उनका अनुवाद भी उनके अपने ही अंदाज में बोलता है. बरेली दौरों में कई शामें वीरेनदा के साथ बीतती थीं. वे अपनी मोटर साइकिल धड़धड़ाते आ जाते और हम कैंट के नीम अंधेरे सन्नाटे में देर तक बैठे बातें करते रहते. 2004 में जब उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो कुछ लोगों ने बेवजह विवाद खड़ा करने की कोशिश की थी.
उन्हें दुख पहुंचा था, लेकिन खुद विवाद में उलझने की बजाय वे कविता करते और अपनी शर्तों पर जीते रहे. उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार और शमशेर सम्मान जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले, लेकिन पुरस्कारों की राजनीति व खेमेबाजी से वे खिन्न रहते थे, उन्हें हैरत होती थी कि साहित्य में षड्यंत्र कैसे किये जा सकते हैं.
वीरेनदा कविता में ही नहीं, जीवन में भी ईमानदार थे, इसलिए षड्यंत्र और समझौते नहीं कर सकते थे. अखबार के भगवाकरण की कोशिश के खिलाफ उन्होंने ‘अमर उजाला’ से इस्तीफा देने में तनिक देर नहीं की थी. एक कविता में वे कहते हैं- ‘एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की कोशिश के सिवा…’वीरेनदा सचमुच सही इनसान और जमीनी कवि बने रह सके. उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि!