अमन-चैन विरोधियों पर कार्रवाई का वक्त

अनुज कुमार सिन्हा रांची की शांति को भंग कर, यहां के अमन-चैन को खत्म करने की साजिश तीन-चार दिनों से चल रही है. शहर के कई इलाकों में तनावपूर्ण शांति और अजब सा सन्नाटा है. बड़ी संख्या में पुलिस बल, रैफ और सीआरपीएफ की तैनाती है. इसके बावजूद चंद अपराधी लोगों को भड़काने में लगे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 30, 2015 6:56 AM

अनुज कुमार सिन्हा

रांची की शांति को भंग कर, यहां के अमन-चैन को खत्म करने की साजिश तीन-चार दिनों से चल रही है. शहर के कई इलाकों में तनावपूर्ण शांति और अजब सा सन्नाटा है. बड़ी संख्या में पुलिस बल, रैफ और सीआरपीएफ की तैनाती है. इसके बावजूद चंद अपराधी लोगों को भड़काने में लगे हैं. अभी तक ये अपने मंसूबे में सफल नहीं हो सके हैं, लेकिन समय आ गया है, जब उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाये. कभी रांची में, कभी खलारी-ओरमांझी, लोहरदगा या प्रतापपुर में ऐसी घटनाएं घट रही हैं. इसका संकेत तो यही है कि सुनियोजित तरीके से झारखंड को अशांत करने की साजिश चल रही है. इसमें कोई एक जाति, धर्म या समुदाय के लोग शामिल नहीं हैं. हर समुदाय में ऐसे सिरफिरे आगे आने का प्रयास कर रहे हैं.

अब समय आ गया है, जब रांची या झारखंड के अन्य शहरों को अशांत करनेवालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो. यह खुशी की बात है कि 99 फीसदी से ज्यादा लोग अमन-चैन चाहते हैं और इसके लिए लोगों ने पहल भी की है. शांति मार्च निकाला, दोनों समुदाय के समझदार लोगों ने अपील की, समझाया, खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास रांची की सड़कों पर उतरे और लोगों से शांति बनाये रखने की अपील की. इसके बावजूद अगर चंद लोग (ये अपराधी हैं) नहीं मान रहे हैं, तो उन्हें और समझाने के बजाय कानून को अपना काम और तेजी से, कड़ाई से करना चाहिए. संभव हो सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने में लगे लोग (दोनों समुदाय के चंद लोग इसमें शामिल हैं) अब डंडा-बेंत की ही भाषा सुनेंगे.

रात हो या दिन, सड़कों पर हथियारों का प्रदर्शन कोई करते रहे और पुलिस अगर चुप रहेगी, तो ये नहीं मानेंगे. आधा संकट पैदा किया है मोबाइल फोन और सोशल साइट्स ने. अफवाह फैलाने में इनका उपयोग किया जा रहा है. इस पर नियंत्रण होना चाहिए. अफवाह फैलानेवाले दो-चार लोगों पर अगर कार्रवाई होने लगे, तो आधी समस्या सुलझ जायेगी.

चार दिन बीत जाने के बावजूद शहर में छिटपुट हिंसा (कहीं अगजनी, कहीं पत्थरबाजी, तोड़-फोड़) का नहीं थमना प्रशासन पर सवाल खड़ा करता है. क्या पुलिस की बात कोई नहीं मान रहा? अगर ऐसा होगा, तो कैसे कानून का राज चलेगा? हां, कड़ाई करते वक्त पुलिस इस बात का ख्याल रखे कि कोई निर्दाेष इसकी चपेट में नहीं आ जाये. दोषी किसी हालत में बचे नहीं. ऐसी बात नहीं कि पुलिस नहीं जानती कि हुड़दंग करनेवाले कौन हैं. हजार की भीड़ में 20-25 ही ऐसे सिरफिरे होते हैं, जो हिंसा करते हैं. ऐसे लोगों को पकड़ना होगा. उत्पात करनेवाले चंद लोग यह भूल जाते हैं कि उनकी इस हरकत से पूरा शहर अशांत हो रहा है. बच्चे स्कूल पहुंचते हैं और अभिभावकों को फोन जाता है कि बच्चों को ले जायें. फोन आते ही किसी तरह जोखिम लेकर बच्चे के मां-बाप स्कूल पहुंचने की कोशिश करते हैं. सोचिए, अभिभावकों की मन:स्थिति क्या होगी.

स्कूल के शिक्षक-प्राचार्य अलग परेशान. बच्चों की सुरक्षा को लेकर. अगर स्कूल बंद कर दिया, तो प्रशासन का कहर, क्यों बंद कर दिया स्कूल. कोई प्रशासन (डीसी-एसपी) को कैसे समझाये कि अगर शहर अशांत है और बच्चों को कुछ हो गया, तो कौन जिम्मेवारी लेगा? कानून-व्यवस्था ठीक रहती, तो स्कूल क्यों बंद होता? और यह जिम्मेवारी तो शासन की है. इसलिए प्रशासन अपने दायित्व को और कड़ाई से निभाये. हां, राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. कानून की नजर में हर कोई बराबर है और ऐसे माहौल में गड़बड़ी करनेवाला चाहे कितना भी पहुंचवाला क्यों न हो, उसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए. बेहतर यही होगा कि स्थिति से पुलिस निबटे और नेताओं को फटकने नहीं दे. संभव हो, तात्कालिक लाभ के लिए राजनीतिक दलों के नेता स्थिति को संभालने के बजाय बिगाड़ने लगे.

गड़बड़ी करनेवाले यह भूल जाते हैं कि यह 1967 का रांची, 1973 का हजारीबाग या 1979 का जमशेदपुर नहीं है. काफी समय बीत गया है और लोग अमन-चैन चाहते हैं. अपने कैरियर, अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं. उन्हें पता है कि ऐसी हरकतें उनकी जीवन बनायेगी नहीं, बल्कि बिगाड़ेगी. इसलिए अपवाद को छोड़ दें, तो झारखंड में ऐसी गड़बड़ी करनेवालों को हमेशा मात ही मिली है, उनकी हार ही हुई है. इस बार भी यही होगा. ऐसे अपराधियों की बातों में फंसनेवाले चंद लोगों को यह सोचना होगा कि अपराधी कभी आदर्श या उनका हीरो नहीं हो सकता. यह भी सोचना होगा कि आग लगाना काफी आसान होता है, लेकिन उसे बुझाना उतना ही कठिन. शांति भंग करने में लगे चंद लोगों को यह समझना होगा कि इस आग का शिकार उनका परिवार-बच्चा भी हो सकता है. उन्हें यह समझना होगा कि बरसों से एक थाली में साथ-साथ खाना खानेवाले दो समुदायों के जिगरी दोस्तों के बीच विष बोने से न तो उनका भला होगा और समाज का.

दो-चार दिनों की ऐसी घटनाओं का दूरगामी असर पड़ता है-खासकर आपसी विश्वास हासिल करने में. इसलिए ऐसे मौके पर लोग धैर्य से काम लें. पुलिस और प्रशासन का सहयोग करें. इन पर भरोसा रखें. साथ में पुलिस अपनी भूूमिका ठीक से अदा करें, यानी अपराधियों-हुड़दंग मचानेवालों को पकड़ कर धुनाई करे. दोनों समुदायों में समझदार लोगों की भरमार हैं. इन अच्छे लोगों को आगे आना होगा, शांति के लिए, अमन-चैन के लिए (ऐसा वे कर भी रहे हैं). ऐसा कर ही हालात को सामान्य बनाया जा सकता है.

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