पराकाष्ठा

लोकतंत्र में विरोध की आवाज न हो, तो वास्तविक अर्थों में वह व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो जाती है. पर इससे भी ज्यादा महत्व इस बात का है कि विरोध करने का तरीका क्या हो? क्या विरोध केवल विरोध जताने के लिए होना चाहिए? ये दोनों चीजें तय करती हैं कि विरोध कितना तर्कपूर्ण व व्यापक समाज […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 1, 2015 5:45 AM
लोकतंत्र में विरोध की आवाज न हो, तो वास्तविक अर्थों में वह व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो जाती है. पर इससे भी ज्यादा महत्व इस बात का है कि विरोध करने का तरीका क्या हो? क्या विरोध केवल विरोध जताने के लिए होना चाहिए?
ये दोनों चीजें तय करती हैं कि विरोध कितना तर्कपूर्ण व व्यापक समाज के हित में है. अगर विरोध का आधार ये न हो, तो वह अगंभीर व अमर्यादा के पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है. बिहार में चुनाव का वक्त है. अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेताओं की सभाएं हो रही हैं. उनके अलग-अलग मुद्दे हैं. इस क्रम में नवादा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सभा में भीड़ के एक हिस्से ने जिस तरह विरोध किया, वह लोक जीवन के लिए निराशा पैदा करनेवाली प्रवृति है.
नीतीश कुमार खुद संयमित भाषा का प्रयोग करने के लिए जाने जाते हैं. ऐसे में विरोध की यह कैसी राजनीतिक संस्कृति है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस तरीके से विरोध कर हम हासिल क्या करना चाहते हैं? इससे तो समाज में कटुता ही बढ़ेगी. असहमति जाहिर करने के अनेक मर्यादापूर्ण तरीके हैं. मौन रह कर, मुंह पर पट्टी बांध कर और उपवास के जरिये विरोध जताना आजमाया हुआ तरीका है. महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण और हाल में अन्ना हजारे तक को हमने इस तरीके के साथ देखा-परखा है.
बहरहाल, विरोध के अमर्यादित तथा विवेकहीन प्रदर्शन को हतोत्साहित करने की जिम्मेदारी भी राजनीतिक दलों की है. आप कल्पना करिए कि असहमति का प्रदर्शन अगर इसी अंदाज में अलग-अलग नेताओं की सभाओं में होने लगे, तो क्या होगा? निश्चय ही इससे बेवजह तनाव पैदा होगा और वह हमारे जीवन को प्रभावित करेगा. राजनीतिज्ञ एक-दूसरे पर तंज कसते हैं.
आरोप लगाते हैं. कटु वचन का सहारा लेते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सामाजिक स्तर पर कटुता इतनी बढ़ा दी जाये कि वह हमारे लिए ही अशांति का सबब बन जाये. इस लिहाज से राजनीतिक पार्टियों की भूमिका बढ़ जाती है. उन्हें एक ऐसा माहौल बनाने के लिए सबको प्रेरित करना होगा, जिसमें तमाम असहमतियों के बावजूद बात कहने और उसे सुनने का धैर्य हो. इससे लोकतंत्र की खूबसूरती ही बढ़ेगी.
अगर किसी दल या राजनीतिज्ञ से असहमति हो, तो उसका प्रदर्शन वोट के माध्यम से करने का कारगर विकल्प भी मौजूद है. राजनीतिक अथवा सामाजिक स्तर पर यह कोशिश होनी चाहिए कि असंयमित आचरण का प्रदर्शन न हो. समाज और राजनीति को दिशा देनेवाला यह कार्यभार राजनीतिक दलों को उठाना ही उठाना पड़ेगा. क्या राजनीति इसके लिए मानस तैयार करेगी?

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