राजनीति में मूल्यों का क्षरण

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार पता नहीं क्या सोच कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में बेटे, बेटी और दामाद का नाम लिया होगा, पर यह सबको पता है कि भारत की राजनीति में बेटों, बेटियों, दामादों, भाइयों, भतीजों की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है. भाजपा वाले जब राजनीति में परिवारवाद की बात करते हैं, तो निशाने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 2, 2015 1:20 AM
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
पता नहीं क्या सोच कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में बेटे, बेटी और दामाद का नाम लिया होगा, पर यह सबको पता है कि भारत की राजनीति में बेटों, बेटियों, दामादों, भाइयों, भतीजों की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है. भाजपा वाले जब राजनीति में परिवारवाद की बात करते हैं, तो निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार ही होता है, और जब कांग्रेस वाले परिवार की राजनीति पर निशाना साधते हैं, तो उनका आशय संघ परिवार से होता है.
बिहार परिवारवादी राजनीति के चुंगल में फंसा नजर आ रहा है. टिकटों के बंटवारे को लेकर जनतंत्र के इन राज-परिवारों में जो घमासान मचा हुआ है, वह हमारे जनतंत्र को लगनेवाले दीमक को उजागर करने के लिए पर्याप्त है. हर कथित बड़ा नेता अपने परिवार के सदस्यों को टिकट बांटने में लगा हुआ है.
जिन बेटों, बेटियों, दामादों को किन्हीं कारणों से टिकट नहीं मिल पा रहे, वे खुलेआम विद्रोह कर रहे हैं. रोचक तथ्य यह भी है कि इन विद्रोहियों का दूसरे दल बाहें फैला कर अपने पाले में स्वागत कर रहे हैं. जीत चाहे किसी की हो, यह तय है कि सदन में किसी न किसी राजनेता का भाई-भतीजा, बेटा-बेटी या दामाद या साला बैठेगा ही. भाई-भतीजावाद का यह नजारा मजेदार तो है, पर जनतंत्र के लिए खतरनाक भी है.
दशकों पहले जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीतिक विरासत सौंपने का मन बनाया था, तो उनके राजनीतिक विरोधियों ने बड़ा हो-हल्ला मचाया था. तब इंदिरा गांधी ने यह तर्क दिया था कि यदि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर हो सकता है, तो राजनेता का बेटा राजनीति में क्यों नहीं आ सकता? सवाल वाजिब था.
सारे राजनेताओं को यह ‘आड़’ सुहा गयी. विरासत की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने में इंदिरा गांधी का तर्क गलत नहीं था. लेकिन यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि किसी राजनेता के परिवार में पैदा होने से ही कोई व्यक्ति राजनेता बनने के काबिल क्यों माना जाये?
हमारी राजनीति के तर्कों पर न चलने का परिणाम है कि आज नेता-पुत्र या नेता-दामाद या नेता-संबंधी राजनीतिक पदों पर अपना पहला हक मानने लगे हैं. मान लिया गया है कि राजनीतिक काबिलियत का सबसे बड़ा आधार राजनीतिक घरानों से जुड़ा होना है.
कांग्रेस विरोधी कांग्रेस को मां-बेटे की पार्टी कहते हैं, वहीं भाजपा में कई नेताओं के बेटे, भतीजे, दामाद आदि भी राजनीतिक लूट के दावेदार हैं. वाम दलों को छोड़ कर शेष सारे दलों पर परिवारवाद हावी है. क्षेत्रीय पार्टियां तो जैसे राजनेताओं की खानदानी मिल्कियत हैं. तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक इसे देखा जा सकता है.
जनतंत्र में राजनीतिक दलों का मतलब कुछ सिद्धांतों, कुछ नीतियों, कुछ मूल्यों के आधार पर राजनीति करने की एक पद्धति के रूप में ही समझा जा सकता है, लेकिन हमारी राजनीति से तो जैसे सिद्धांत, नीतियां, मूल्य कहीं गायब ही हो गये हैं. हमारी आज की और आनेवाले कल की राजनीति की दृष्टि से बिहार में होनेवाले चुनाव दूरगामी परिणाम वाले हैं, और परिणाम सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं रहेंगे.
जिस तरह की चुनावी राजनीति वहां दिख रही है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाई-भतीजावाद की पकड़ हमारी समूची राजनीति पर और मजबूत हो सकती है. परिवारवादी आधार के अलावा भी, जिस तरह वहां टिकटों का बंटवारा हो रहा है, वह किसी स्वस्थ राजनीति की आशाएं नहीं जगाता. टिकटों के बंटवारे में भ्रष्टाचार के आरोप भाजपा जैसी खुद को साफ बतानेवाली पार्टी पर भी लग रहे हैं और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस पर एक रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए है.
सवाल उठता है कि क्या मतदाता तथाकथित बड़े राजनेताओं से यह पूछेगा कि पारिवारिक रिश्ते राजनीतिक योग्यता-क्षमता के मानक क्यों बना दिये गये? दुर्भाग्य से यह हमारी राजनीति की एक हकीकत है कि सिद्धांत या मूल्य या आदर्श या सुशासन जैसे मानक हमारी राजनीति का आधार नहीं हैं. जाति, धर्म, धन-बल, बाहुबल, परिवार-बल के आधार पर चलनेवाली राजनीति को सिर्फ मतदाता ही चुनौती दे सकता है. पर क्या हमारा मतदाता इसके लिए तैयार है?
नहीं है, तो उसे होना पड़ेगा- क्योंकि दांव पर उसी का भविष्य लगा है. राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने हमारी समूची राजनीति को जिस दलदल में फंसा दिया है, उसे उससे उबारने का काम मतदाता को ही करना है. आज विवेकशील राजनीति का यही तकाजा है कि मतदाता अपने विवेक का इस्तेमाल करे.

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