नेपाल-भारत दोनों के राष्ट्रहित सर्वोपरि
नेपाल का सारा हालिया घटनाक्रम उसका अांतरिक मामला है, जिसमें भारत का नाम मात्र भी हस्तक्षेप नहीं, पर नेपाल की हिंसक उथल-पुथल को अनदेखा कर भारत तटस्थ बैठा रहेगा, यह सोचना तर्कसंगत नहीं. नेपाल के लिए राजनीतिक अस्थिरता, असमंजस, संवैधानिक संकट या जनाक्रोष का हिंसक विस्फोट अपरिचित नहीं. तकरीबन 20-25 साल से यह माहौल बरकरार […]
नेपाल का सारा हालिया घटनाक्रम उसका अांतरिक मामला है, जिसमें भारत का नाम मात्र भी हस्तक्षेप नहीं, पर नेपाल की हिंसक उथल-पुथल को अनदेखा कर भारत तटस्थ बैठा रहेगा, यह सोचना तर्कसंगत नहीं.
नेपाल के लिए राजनीतिक अस्थिरता, असमंजस, संवैधानिक संकट या जनाक्रोष का हिंसक विस्फोट अपरिचित नहीं. तकरीबन 20-25 साल से यह माहौल बरकरार रहा है. राजपरिवार की नृशंश हत्या के पहले भी यह देश गृहयुद्ध की चपेट में था अौर माअोवादी उत्पात के कारण पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी. पड़ोसी भूटान के साथ इसके रिश्ते तनावग्रस्त रहे हैं अौर भारत के प्रति वैमनस्य, मतभेद, क्लेष व रोष का लंबा इतिहास है. छोटे भूमिबद्ध देश की अपने दैत्याकार पड़ोसी से आशंकित रहने की मानसिकता स्वाभाविक है, परंतु हाल की घटनाएं इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए भी चिंताजनक समझी जानी चाहिए.
नेपाल में पिछले आठ-नौ साल से तमाम राजकाज बिना किसी संविधान के चलता रहा है, सो नेपालवासियों अौर पड़ोसियों को भी यह महसूस होने लगा है कि जनतांत्रिक पटरी से उतरी नेपाली गाड़ी किसी तरह चलती रहेगी. इस गलतफहमी को पाले रखना हमारे लिए बड़ा जोखिम पैदा कर सकता है. नेपाल में संविधान को लेकर जो ज्वालामुखी धधक रहा है उससे भारत बचा नहीं रह सकता.
नेपाल एक भूमिबद्ध देश है अौर राष्ट्र-राज्य के रूप में उसका इतिहास अनोखा है. 18वीं सदी के अंतिम चरण में ही पृथ्वीनारायण शाह ने छोटी-छोटी रियासतों-जागीरों का विलय अपने गोरखा साम्राज्य में किया था. तब भी यह हठ निराधार है कि नेपाल भारत की तरह कभी अंगरेजों का उपनिवेश नहीं रहा. उसे भी अंगरेजों का आधिपत्य स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा था. काठमांडू में तैनात रेजीडेंट के निर्देशानुसार ही महाराजाधिराज की ‘संप्रभुता’ का प्रदर्शन होता था. लगभग रक्षित राज्य की भूमिका स्वीकार करने के बाद ही नेपाल अपनी ‘स्वाधीनता’ की रक्षा कर सका था.
भारत की आजादी के बाद अौपनिवेशिक शासन समाप्त होने के बाद भी नेपाल की भारत पर आर्थिक-सामरिक निर्भरता बनी रही. इसी का नतीजा था 1949-50 में जब निरंकुश राणा सामंती तानाशाही के खिलाफ जनांदोलन ने क्रांतिकारी ज्वार का रूप लिया राजपरिवार अौर जनतांत्रिक दल एवं नेता भारत दोनों ही भारत से सहायता समर्थन की अपेक्षा कर रहे थे. भारत ने इस संकट की वेला में जिस तरह का हस्तक्षेप किया वह पूर्णतः निःस्वार्थ नहीं था अौर महाराज त्रिभुवन को वापस उनके सिंहासन पर बिठा कर भारत यह सोचने लगा कि अब हमेशा के लिए उपकृत नेपाली नेतृत्व भारत का ‘संधिमित्र’ बना रहेगा. कुछ ही समय में यह माहौल बदल गया.
1962 में चीन के साथ सैनिक मुठभेड़ के बाद 1965 में पाकिस्तान को परास्त करने तक भारत दक्षिण एशिया में एक पिटी गोट नजर आ रहा था, जिस कारण तत्कालीन नेपाली शासकवर्ग के आचरण में नाटकीय बदलाव देखने को मिला.
यह आशा स्वाभाविक थी कि नया संविधान अपनाने के साथ ही सारे राजनीतिक विवाद खत्म हो जायेंगे अौर विभाजित नेपाली समाज शांति अौर विकास की दशा में गतिशील होने लगेगा. पर हुअा इसका उल्टा. दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाली नेता अपनी मौकापरस्ती और असफलता का ठीकरा भारत के सिर पर फोड़ने को व्याकुल हैं.
अनेक ‘देशप्रेमी’ नेपाली यह आरोप लगा रहे हैं कि भारत सरकार ने नेपाल पर अंकुश लगाने के लिए ही तराई में सरहद पर नाकाबंदी की है. इसका खामियाजा नेपाल की निरीह जनता को भुगतना पड़ रहा है. सोचने की बात यह है कि महीनों से जिस अराजकता का माहौल पूरे मधेस में व्याप्त है, उसके लिए क्या पीढ़ी-दर-पीढ़ी काठमांडू में राज कर रहे सवर्ण पहाड़ी नहीं? क्या यह सच नहीं कि जिस संघीय प्रणाली का सपना नेपाल के नागरिकों को दिखलाया गया था, वह इस संविधान में चकनाचूर हो चुका है? विचित्र बात तो यह है कि संविधान निर्मात्री सभा के 80 प्रतिशत सदस्यों ने इस संविधान का मसौदा पारित किया है! यह सुझाना कि भारत की शरारत से यह संकट पैदा हुआ है, सरासर गलत है. यहां तत्काल यह जोड़ना जरूरी है कि यह सारा घटनाक्रम नेपाल का अांतरिक मामला है, जिसमें भारत का नाम मात्र भी हस्तक्षेप नहीं, पर नेपाल की हिंसक उथल-पुथल को अनदेखा कर भारत तटस्थ बैठा रहेगा, यह सोचना तर्कसंगत नहीं.
सदियों से साझे की संस्कृति को राष्ट्रीय संप्रभुता के अहंकार में ठुकराने की भूल नेपाली नेता कर सकते हैं, नेपाली जनता नहीं. भारत खुद अनेकों चुनौतियों से जूझ रहा है, तब भी करोड़ों नेपाली नागरिक भारत में उन सुविधाअों को भोगते हैं, जो सामान्यतः देश के नागरिकों तक सीमित हैं. नेपाली लोगों को लेकर यहां वैसा असंतोष कभी नहीं रहा, जैसा बांग्लादेशी ‘शरणार्थियों’ के प्रति मुखर होता रहता है.
असलियत यह है कि पिछले दशकों में भारत नहीं पश्चिमी देश- अमेरिका, यूरोपीय समुदाय की परोपकारी संस्थाएं-संगठन सरकारी तथा गैरसरकारी- जापान अौर चीन के साथ सक्रिय रहे हैं. इनसे प्राप्त सहायता-अनुदान से नेपाल के श्रेष्ठवर्ग में यह धारणा बलवान हुई है कि भारत की कोई खास जरूरत उन्हें नहीं रह गयी. नेपाली समाज का जो तबका ‘एलीट’ कहलाता है, वह जनता के असंतोष-आक्रोष से अपने को बचाने के लिए इस दलील की ढाल का प्रयोग करता रहा है. मधेस में ‘बंध’ का आयोजन संविधान से क्रुद्ध नेपाली नागरिकों ने किया है, पर प्रचार यह किया जा रहा है कि यह भारत सरकार द्वारा प्रायोजित अप्रत्यक्ष निषेध (ब्लॉकेड) है! हकीकत यह है कि उग्र हिंसा पर उतारू भीड़ के तेवर देख भारतीय व्यापारी अौर वाहन चालक अपनी जान अौर माल को जोखिम में नहीं डाल रहे हैं. यह ऐलान किया गया है कि जरूरत पड़ने पर चीन से तेल का आयात किया जायेगा. यह भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए ही है.
इस वक्त भारत से धैर्य की अपेक्षा है. नेपाली राजनीति में सक्रिय दल एवं व्यक्ति अपने शक्ति-समीकरण तय लें, तभी हम अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें. हां, सरहद पर अपनी तरफ से सख्त नाकाबंदी में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, ताकि असामाजिक, आपराधिक तत्व उपद्रवग्रस्त नेपाल से इस तरफ न पहुंच सकें. जिस तरह नेपाल की किसी भी सरकार के लिए उसके अपने राष्ट्रहित सर्वोपरि रहते हैं, भारत के लिए भी उसके अपने राष्ट्रहित ही प्राथमिक हैं.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com