चुनावी सरगरमी में आपा खोते नेता
आम तौर पर नेता बोलने में तो माहिर होते ही हैं, लेकिन जब चुनाव का वक्त आता है, तो उनकी जुबान पहले से कुछ अधिक तीखी हो जाती है. विरोधी दलों को नीचा दिखाने के चक्कर में वे न जाने क्या, क्या बोल जाते हैं, खुद उन्हें भी पता नहीं चलता. गलती का एहसास तो […]
आम तौर पर नेता बोलने में तो माहिर होते ही हैं, लेकिन जब चुनाव का वक्त आता है, तो उनकी जुबान पहले से कुछ अधिक तीखी हो जाती है. विरोधी दलों को नीचा दिखाने के चक्कर में वे न जाने क्या, क्या बोल जाते हैं, खुद उन्हें भी पता नहीं चलता. गलती का एहसास तो तब होता है, जब उनके विरोधी उन्हें आइना दिखाने का प्रयास करते हैं. अजीब हाल है. यह समझ में नहीं आता कि पूरे पांच साल तक लोगों को शालीनता का पाठ पढ़ानेवाले नेता अचानक चुनावी सरगरमी शुरू होते ही आपा क्यों खो देते हैं?
वैसे तो यह आम धारणा बन गयी है कि भारतीय राजनीति गुनाहगारों की शरणस्थली बन गयी है, लेकिन देश के राजनेताओं की कड़वी बोल इस अवधारणा को और मजबूत करती है. सही मायने में देश के नेताओं को यहां के नागरिकों के विकास के लिए जो काम करना चाहिए. देश के नेताओं को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए.
हरिश्चंद्र महतो, बेलपोस