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डाटा कार्ड के दौर में पोस्टकार्ड की याद

प्रभात रंजन कथाकार अभी हाल में ही एक बुजुर्ग पाठक ने मेरी किताब पढ़ कर मुझे पोस्टकार्ड पर पत्र लिखा. मैं रोमांचित हो गया. मुझे याद नहीं कि पिछली बार मुझे किसने और कब पत्र लिखा था. या मैंने किसी को कब पत्र लिखा था. शायद पांच साल पहले या उससे भी पहले. पोस्टकार्ड को […]

प्रभात रंजन

कथाकार

अभी हाल में ही एक बुजुर्ग पाठक ने मेरी किताब पढ़ कर मुझे पोस्टकार्ड पर पत्र लिखा. मैं रोमांचित हो गया. मुझे याद नहीं कि पिछली बार मुझे किसने और कब पत्र लिखा था. या मैंने किसी को कब पत्र लिखा था. शायद पांच साल पहले या उससे भी पहले.

पोस्टकार्ड को बार-बार पढ़ते हुए मैं 80 के दशक में पहुंच गया, जब मैं बिहार के सीमावर्ती जिले सीतामढ़ी में रहता था और पत्र लिखता था. उन दिनों मेरे अध्यापक गुरु ने मुझे लेखक होने की दिशा में पहली सलाह यह दी थी कि खूब पत्र लिखा करो, उससे भाषा अच्छी होती है.

मुझे याद है कि मैं उन दिनों हिंदी के बड़े लेखकों को पत्र लिखा करता था और उनसे यह सलाह मांगता था कि लेखक बनने के लिए क्या करना चाहिए. राजेंद्र यादव ने जवाब दिया था कि किसी के सिखाने से कोई लेखक नहीं बनता. उन दिनों लेखकों को पत्र लिखने का ऐसा चस्का था कि पत्र लिखने के लिए पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं पढ़ता था. आज सोचता हूं, तो लगता है कि उन दिनों हिंदी साहित्य के घनघोर पाठक बनने में कुछ भूमिका पत्र लेखन की उस आदत की भी थी. उन दिनों जवाबी लिफाफे के साथ पत्रिकाओं में रचनाएं भेजने का चलन था. तब अकसर जवाबी लिफाफे में रचनाएं लौट आती थीं.

लेकिन रचनाएं भेजने का रोमांच जरा भी कम नहीं होता था. मेरा एक दोस्त था, जो फिल्मी तारिकाओं को पत्र लिखा करता था. उन दिनों मायापुरी, फिल्मी कलियां आदि पत्रिकाओं में नये-नये फिल्मी कलाकारों के बारे में सामग्री प्रकाशित होती थी और उनके पते प्रकाशित किये जाते थे. प्रशंसक उन पतों पर पत्र लिखते थे, फिल्मी कलाकार उनके जवाब भी देते थे. मुझे याद है कि फरहा नाज, खुशबू आदि नायिकाओं ने उसके पत्र के जवाब में धन्यवाद पत्र के साथ-साथ अपनी तसवीरें भी भेजी थीं.

वह घनघोर पत्र लेखन का दौर था. पत्र-पत्रिकाओं में पत्र-मित्र क्लब होते थे. जिनमें पत्र लिख कर आप मित्रता कर सकते थे. मेरे अध्यापक गुरु ने यह सलाह दी थी कि प्रेमपत्र लिखा करो, उससे भाषा में रवानी आयेगी. जीवन में प्रेमिका का अभाव था, इसलिए काल्पनिक प्रेमिकाओं के नाम पत्र लिखा करता था. संयोग से मेरी एक किताब में वह पत्र एक दिन मेरे उस गुरु को मिल गया. संयोग से उस पत्र में मेरी जो काल्पनिक प्रेमिका थी, वह उनकी भांजी थी. आज भी याद करके शरमा जाता हूं कि उन्होंने पत्र लौटाते हुए कहा था कि पत्र तो बहुत अच्छा है, लेकिन प्रेमिका का नाम बदल लो.

आखिर बार मैंने पत्र 5-6 साल पहले एक कवि मित्र को लिखा था. जवाब में उसने फोन करके धन्यवाद दिया. मैं आभारी हूं अपने उस बुजुर्ग पाठक का कि उनकी वजह से बरसों बाद मैं डाकघर गया पोस्टकार्ड खरीदने. आज भी पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय, लिफाफे मिलते हैं. बस पत्र लिखना खत्म होता चला गया है.

पत्र लिखने की जीवंत परंपरा देखते-देखते विरासत में बदल गयी. एक पोस्टकार्ड से क्या-क्या याद आ गया!

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