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पुरस्कार वापसी की राजनीति

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार तीन लेखकों की पुरस्कार वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुंचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई संदेश जायेगा? एक सवाल उन लेखकों के सामने भी है, जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या आगे होनेवाले […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
तीन लेखकों की पुरस्कार वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुंचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई संदेश जायेगा? एक सवाल उन लेखकों के सामने भी है, जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या आगे होनेवाले हैं? क्या उन्हें भी सम्मान लौटाने चाहिए? नहीं लौटायेंगे तो क्या मोदी सरकार के समर्थक माने जायेंगे? पुरस्कार वापसी ने इस मसले को महत्वपूर्ण बना दिया है. लगातार बिगड़ते सामाजिक माहौल की तरफ किसी ने तो निगाह डाली. किसी ने विरोध तो व्यक्त किया. पर डर यह है कि यह पुरस्कार वापसी कहीं राजनीति का हिस्सा बन कर न रह जाये.
ये पुरस्कार मोदी सरकार ने नहीं दिये थे, और न ये पुरस्कार सरकारी हैं. उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी के बाद बुधवार को उर्दू लेखक रहमान अब्बास ने महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की. एक खुली चिट्ठी में दूसरे लेखकों से अपील भी की है कि वे भी अपनी आवाज बुलंद करें. पिछले हफ्ते छह कन्नड़ लेखकों ने प्रो कलबुर्गी की हत्या के मामले में हो रही देरी के विरोध में पुरस्कार वापस किये थे.
इसे राजनीतिक मुहिम भी माना जा सकता है. पर यह मुहिम बड़ी शक्ल लेगी, तो उसका मतलब कुछ और होगा. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले विदेशी अखबारों में कुछ भारतीय लेखकों ने नरेंद्र मोदी को हराने की अपील जारी की थी. हालांकि, लेखकों ने अलग-अलग संदर्भों में अपने-अपने फैसले किये हैं, पर इनका प्रस्थान बिंदु नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और प्रो कलबुर्गी की हत्याओं से जुड़ा है. देखना यह है कि क्या भारतीय जनता इस खतरे से वाकिफ है भी या नहीं. और यह भी कि लेखक क्या जनता की भावनाओं को अच्छी तरह से समझते हैं.
इसके पहले पेंग्विन प्रकाशन ने अमेरिकी लेखक वेंडी डोनिगर की किताब ‘द हिंदू : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ की प्रतियों को बाजार से वापस ले लिया. गौरतलब है कि इस किताब को हिंदुओं के लिए अपमानजनक बताते हुए इसके खिलाफ अदालत में याचिका दायर की गयी थी. हालांकि, यह आपसी समझौता था, पर अभिव्यक्ति से जुड़े सवाल उसमें शामिल थे.
पुरस्कार वापसी को लेकर लेखकों से भी सवाल किया गया है. नयनतारा सहगल ने दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों के बावजूद सम्मान ग्रहण किया. आज वे मोदी के मौन पर व्यथित हैं, पर 1984 में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने बड़ा पेड़ गिरनेवाला बयान दिया था. उन्होंने पुरस्कार लिया भी था, तो 1992 में बाबरी मसजिद का विध्वंस दादरी मामले के मुकाबले छोटा न था. तभी वापस कर देतीं. पर इसका भी जवाब है.
तब उन्होंने गलती की थी, तो क्या आज भी गलती करें? आज पुरस्कार वापस करने में बुराई ही क्या है?
सरकार पर पुरस्कार वापसी से नहीं सामाजिक दबाव से फर्क पड़ता है. क्या लेखकों का कदम बिगड़ते सामाजिक माहौल को ठीक कर सकेगा? क्या यह माहौल केवल भारतीय जनता पार्टी की देन है? या इसमें देश की समूची चुनावी-राजनीति का योगदान है? क्या यह राजनीति हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा उठा रही है?
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बुधवार को कहा कि हम देश के संस्कारों को खत्म नहीं होने देंगे. हालांकि, उन्होंने दादरी की घटना का जिक्र नहीं किया. उन्होंने कहा कि हम भारतीय सभ्यता के मूल्यों को किसी कीमत पर टूटने नहीं दे सकते. हमें अनेकता में एकता और सहिष्णुता की भावना का सम्मान करना चाहिए और हमें इसका ध्यान रखना चाहिए. क्या उनका यह संदेश प्रधानमंत्री मोदी के नाम था?
इस साल जनवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि भारत में उपजी धार्मिक असहिष्णुता ने महात्मा गांधी की मुहिम को प्रभावित किया है, जबकि गांधी की विरासत हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है. उसके कुछ दिन बाद ही अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़ने की अपील की थी. प्रधानमंत्री को इसके बाद अपनी बात कहने के कई मौके मिले, पर उन्होंने कभी जोर देकर नहीं कहा कि देश में नफरत और असहिष्णुता का माहौल बनने नहीं दिया जायेगा. लोकसभा चुनाव के दौरान जहरीले बयानों को लेकर उनकी प्रतिक्रिया इतनी कठोर कभी नहीं रही, जिससे माना जाता कि वे कोई कड़ा संदेश दे रहे हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि मोदी की लगातार चुप्पी लोगों को यह संकेत दे रही है कि वे न तो उपद्रवी तत्वों को नियंत्रित कर सकते हैं और न ही करना चाहते हैं. ऐसे मौके पर जब भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी भूमिका को मजबूत कर रहा है, देश के भीतर से ऐसी खबरों का आना अच्छी बात नहीं है.
और अब जब देश के लेखकों और संस्कृतकर्मियों ने विरोध के स्वर तेज कर दिये हैं, तो प्रधानमंत्री को इस तरफ ध्यान देना चाहिए. देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ेगा, तो विकास संभव ही नहीं होगा.
इस सिलसिले में असगर वजाहत की प्रतिक्रिया ध्यान खींचती है. उनका कहना है, ‘क्या मोदी सरकार की नीतियों के प्रति विरोध दर्ज कराने का यही एक रास्ता बचा है कि जिन लेखकों को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है, वे उसे वापस कर दें? जिन्हें नहीं मिला, वे अपना विरोध कैसे दर्ज करेंगे? क्या किसी और ढंग से दर्ज किये जानेवाले विरोध को भी वही मान्यता मिलेगी, जो सम्मान वापस कर के विरोध दर्ज करनेवालों को मिल रही है? मैं उन लेखकों और उनकी भावनाओं का सम्मान करता हूं और उनके साथ अपने को खड़ा पाता हूं, जिन्होंने सम्मान लौटा दिये हैं. लेकिन सम्मान लौटा देना मोदी-भाजपा विरोध का मानक या आधार न माना जाये.’
दुनियाभर में लेखक सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं. उन्हें आगे आना चाहिए. वे जनता से सीधे जुड़े होते हैं, इसलिए उन्हें पता है कि समस्या का मूल कहांं है. वे पुरस्कार लें या छोड़ें यह उनकी इच्छा. पुरस्कार महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि लेखक का रचना-धर्म महत्वपूर्ण होता है. ऐसा कुछ रचो, जो जनता की आंखें खोले.

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