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एक ही यात्रा में चीन और रूस

-समय से संवाद-।। हरिवंश ।। दुनिया में कुछ मुल्क हैं, जो खींचते हैं. बुलाते हैं. आकर्षित करते हैं. अपने इतिहास, समृद्ध अतीत, विचारयात्रा, नायकों की आभा के आकर्षण, पुराने दर्शन. संपदा, समेत अनंत-असंख्य कारणों से. हमारे लिए रूस और चीन वैसे ही मुल्क रहे हैं. रूस जाना हुआ, वर्ष 2006 में. वैन (वर्ल्ड एशोसिएशन आफ […]

-समय से संवाद-
।। हरिवंश ।।

दुनिया में कुछ मुल्क हैं, जो खींचते हैं. बुलाते हैं. आकर्षित करते हैं. अपने इतिहास, समृद्ध अतीत, विचारयात्रा, नायकों की आभा के आकर्षण, पुराने दर्शन. संपदा, समेत अनंत-असंख्य कारणों से. हमारे लिए रूस और चीन वैसे ही मुल्क रहे हैं. रूस जाना हुआ, वर्ष 2006 में. वैन (वर्ल्ड एशोसिएशन आफ न्यूजपेपर्स) की बैठक में.किसी तरह समय निकाल कर इतिहास में दर्ज प्रतीकों को देखा. ड्यूमा (संसद), केजीबी मुख्यालय, रेड स्क्वायर .. जैसी अनेक चीजें. विश्वविद्यालय की सड़कों पर चहलकदमी. लेनिन-स्तालिन, ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव का मुल्क. टालस्टाय, गोर्की, चेखव से लेकर सोल्जेनेत्सिन तक न जाने कितने बड़े लेखकों का देश. उस धरती पर घूमते, सेंट पिट्सबर्ग तक की यात्रा करते, पल-पल एक महान देश में होने का आत्मबोध. लगता था, इतिहास को जीवित देख रहा हूं. जब बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया को नया सपना दिखाया. बेचैनी दी. परिवर्तन के पंख दिये. फिर वैन की बैठक में पास से गोर्बाचौफ व पुतिन को सुना, देखा और ‘90 के दशक के इतिहास को भी जीवंत पाया, जब महान सोवियत संघ बिखर रहा था. समझ नहीं पाया, नियति बड़ी है या इंसान?

इसी तरह चीन देखने की ललक थी. भारत के कुछ चुनिंदा पत्रकारों की टोली में सिंगापुर-हांगकांग-चीन जाना हुआ. वर्ष 2001 में, हांगकांग से सेनझेंन (चीन) गये. विशेष आर्थिक जोन (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) की अवधारणा का जहां बीजारोपण हुआ. 1978-80 के दौर में. यह जगह दल-दल थी. समुद्र के पास. सुनसान. ऊबड़-खाबड़. झाड़-झंखाड़, न बसने-रहने योग्य धरती. आज विश्व के सबसे विकसित शहर का नमूना है, यह धरती. अब दुनिया मानती है कि इससे पूर्व मानव इतिहास में इतनी तेजी से इतनी बड़ी व स्तब्धकारी प्रगति किसी मुल्क ने नहीं की, जो चीन ने की है. चीन का यह पक्ष मुझे रोमांचित करता है. अपनी नजरों के सामने कोई पीढ़ी इतिहास को करवट लेते देखे, तो उस युग में होना-साक्षी होना, वर्ड्स्वर्थ के शब्दों में कहें, तो वरदान है. पर चीन के इतिहास, बदलाव या प्रगति की बुनियाद, इसी सेनझेंन (तब इसे ग्वांझुंग भी कहते थे. यहां चीन का बहुत बड़ा बंदरगाह है. इतना बड़ा कि भारत के सभी बंदरगाहों को मिला कर जितना आयात-निर्यात होता है, उतना यहां से अकेले होता है) की नींव डालते हुए देंग सियाओ पेंग ने नये चीन की बात की थी. वह मशहूर जुमला, मुहावरा या नारा दिया था, जो अब इतिहास में दर्ज है कि सवाल यह नहीं है कि बिल्ली सफेद है या काली, महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें चूहे को पकड़ने की क्षमता है या नहीं? उनके इस बयान को आर्थिक दर्शन के संदर्भ में देखा गया. उनके कहने का आशय था कि महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि पूंजीवाद या बाजारवाद या साम्यवाद कौन-सा सही या उपयुक्त है? असल बात यह है कि किस वाद में देश की प्रगति की क्षमता है या तेज आर्थिक विकास का माद्दा है?

उस जगह, जहां से आधुनिक चीन की नींव पड़ी, वहां खड़े होकर अविश्वसनीय बदलाव और मानव श्रम के चमत्कार देख कर हम स्तब्ध थे. यही बेचैन करनेवाला सवाल हम भारतीयों के मन में उठा कि कार्य बड़ा है या बड़ी-बड़ी बातें करना? हम भारतीय तो बातों में ही वीर-सूरमा हैं. फिर वहां से शंघाई जाना हुआ. मानव श्रम, संकल्प, तप और साधना का जीवंत रूप देखने. इतिहास छोड़ दें, 20 वर्षो पुरानी तसवीरों में क्या देखा ‘शंघाई’ को व कैसा पाया, बीस वर्षो बाद! मानव संकल्प का चमत्कार! हमारी पीढ़ी पर माओ का जादू रहा है. हम माओ के देश में यह स्तब्धकारी बदलाव देख रहे थे. जिसे करने में यूरोप-अमेरिका को सैकड़ों वर्ष लगे, उसे दो-तीन दशकों में चीन ने पूरा किया. कर्म और श्रम से.

इन्हीं दो देशों को एक साथ फिर देखने का मौका मिला है, प्रधानमंत्री की रूस-चीन की यात्रा (20-24 अक्तूबर 2013) में. आमतौर से एक देश, दोबारा जाने से बचता हूं. न अब पुरानी ऊर्जा है, न उत्साह. वीवीआइपी के साथ यात्रा में हर पल सजगता की जरूरत अलग. लंबी उड़ान की थकान भी. फिर भी चीन-रूस बुलाते हैं! अपने इतिहास, अतीत की धरोहर, मौजूदा बदलाव व विशिष्टता के कारण. जार्ज बर्नाड शॉ याद आते हैं, उनका कहना है कि हम बुद्धिमान या समझदार बनते हैं, अपने अतीत संग्रह या स्मरण से ही नहीं, बल्कि भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझ कर. इन दोनों देशों को देखना, भविष्य के प्रति एक सजग इंसान की भारतीय जिम्मेदारी क्या हो, यह समझना भी है, इसलिए इस यात्रा में शरीक हूं.

हालांकि यात्राएं अब थकाती हैं, पर यात्राएं सिखाती भी हैं. पढ़ाती भी हैं. प्रधानमंत्री की इस रूस-चीन यात्रा में भी बहुत कुछ नया सीखने, देखने और जानने को मिलेगा. क्योंकि दोनों देशों के पास समृद्ध वर्तमान, आश्वस्तकारी भविष्य और इतिहास-विचार के धरोहरों का भंडार है.

देश की दुर्दशा!

केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि देश में औरंगजेब का राज नहीं चल रहा, कि कभी कोई किसी को उठा कर बंद कर दे या किसी पर केस कर दे. उसी तरह भारत सरकार के चार मंत्रियों के बयान हैं. सीबीआइ द्वारा कोयला मामले में कुमार मंगलम बिड़ला के खिलाफ एफआइआर प्रकरण में बयान देने वाले केंद्रीय मंत्री है, आनंद शर्मा, सचिन पायलट, मनीष तिवारी, मिलिंद देवड़ा. इसके साथ ही पूर्व कोयला सचिव डीसी पारेख पर कार्रवाई के संबंध में भी अलग-अलग बयान आये हैं. खुद श्री पारेख ने कहा कि अगर मैं आरोपी हूं, तो प्रधानमंत्री भी दोषी हैं, क्योंकि खदान आबंटन प्रधानमंत्री के दस्तख्त से हुआ है. उन्होंने यह भी कहा कि मैंने गलत किया, तो प्रधानमंत्री से भी पूछताछ हो. क्योंकि तब प्रधानमंत्री ही कोयला मंत्री थे. उन्हीं दिनों 57 कोल ब्लाक आबंटित हुए थे. उल्लेखनीय है कि पारेख अत्यंत ईमानदार अफसर रहे हैं. उन्होंने कोयला खदान आबंटन के शुरू में इस नीति का विरोध किया था और खुला टेंडर निकालने की बात की थी. खुद कांग्रेस पार्टी व उसके राजनेता भ्रष्टाचार में आकंठ जितने भी डूबे हों, पर प्रधानमंत्री की निजी निष्ठा पर सवाल नहीं उठ सकता. पर, देश का असल दुर्भाग्य है कि हालात ऐसे बन गये हैं कि ऐसे लोगों की निजी ईमानदारी सरकार या व्यवस्था में हो रही बड़ी लूट या अनियमितता को रोक नहीं पा रही. यह सबसे जटिल व गंभीर चुनौती है, देश के लिए. व्यवस्था के लिए अंतत: सरकार में बैठे लोग कहते हैं कि औरंगजेब राज है, तो इसका दोष किस पर है? हुकूमत या शासन सरकार के हाथ में हैं. सब जानते हैं कि सीबीआइ भी सरकार के मातहत है.

याद रखना चाहिए, सीबीआइ को स्वायत बनाने के सवाल पर हाल में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर विरोध किया. संभव है, मुलायम या मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले, अपर्याप्त सबूत के कारण वापस लिये गये हों. लेकिन मौजूदा हालत में संदेश तो यही गया कि आगामी चुनावों में कांग्रेस अपनी स्थिति पुख्ता करने के लिए यह करा रही है. पहले की केंद्र सरकारों पर भी, सीबीआइ को अपने हित में उपयोग करने के आरोप लगते रहे हैं. स्पष्ट है कि सीबीआइ स्वायत्त नहीं है. असल बात है कि आज देश कौन चला रहा है, किसी को नहीं मालूम? यह संपूर्ण अराजकता है. जो जहां है, वहीं पर, उसी तरह आजाद राजा की तरह आचरण कर रहा है. क्योंकि आज देश में कोई कद्दावर राजनेता नहीं है. लगता है कि केंद्र में कोई सरकार ही नहीं है. मंत्री चिल्ला रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर हमला हो रहा है, फिर आप गद्दी पर क्यों हैं? अभी हम इस विषय की गहराई में नहीं जा रहे कि सीबीआइ की कार्रवाई गलत है या सही है? यह सब कानूनसम्मत मामला है. अलग विषय है. हम यह भी नहीं बता रहे कि कोल खदानों के आबंटन में कांग्रेसी सांसदों को भी कोयला खदान मिली हैं. विपक्षी राज्यों में भी अपनी सुविधानुसार कोल खदानों के आबंटन के लिए ‘रिकमेंडेशंस’ (अनुशंसाएं) भेजी हैं. अब खबर आ रही है कि ओड़िशा के सीएम नवीन पटनायक से भी पूछताछ होगी. अगर किसी ने गलती की है, तो कानून को सफाई करने का अधिकार है. यह विषय अलग है. मूल सवाल यह है कि देश में सत्ता किसके हाथ में है, यह साफ होना चाहिए? साढ़े छह दशकों की आजादी के बाद ऐसी अराजकता कभी नहीं रही. इंदिरा गांधी की याद आती है. हजार कमियों के बावजूद उनमें देश को एक रखने का माद्दा था. लोकतंत्र में सबसे बड़ी गद्दी है, प्रधानमंत्री की. उसकी अपनी गरिमा है. देशहित में है कि वह गरिमा बनी रहे. आज सबने मिल कर लोकतंत्र की महत्वपूर्ण संस्थाओं के प्रति अविश्वास-अनास्था का बोध पैदा कर दिया है. देश ऐसे न चलता है, न संभलता है?

सही भूमिका की जरूरत

मुजफ्फरनगर की अशांति के मूल में उत्तर प्रदेश सरकार की मिसहैंडलिंग के अनेक तथ्य सामने आये हैं. अब एक नया तथ्य है. (देखें द इकनॉमिक टाइम्स 02.10.13) सरकारें या प्रशासन कै से पक्षधरता से समाज में कलह या तनाव का बीजारोपण करती हैं, इसका एक और नमूना. जिस व्यक्ति पर दंगे का आरोप था, यूपी सरकार ने ‘स्टेट गेस्ट’ बनाया. इस खबर के अनुसार सरकार ने उन्हें स्टेट गेस्ट का दर्जा ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें लखनऊ लाने के लिए सरकारी विमान भी उपलब्ध कराया, ताकि वह मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह से मिलें. दंगे के आरोपी मौलवी (या धार्मिक गुरु) के साथ सरकारी अफसरों ने यात्र की और उसी दिन मिल कर ये लोग वापस भी चले गये. इस मीटिंग में मौलाना नाजिर भी थे, जिनपर 03.09.13 को एफआइआर हुआ. यह एआइआर भी सरकार ने ही किया है. उन पर यूपी ने ही दफा लगाया है, 408,147,188, 341, 353 और 153ए. अगर सरकारें ऐसा काम करेंगी, तो इसका लोगों पर क्या असर जायेगा?

सरकार का धर्म है, कानून. जिसके सामने सभी भारतीय समान हैं. हाल ही में जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट के एक माननीय न्यायमूर्ति मुजफ्फर हुसैन अख्तर ने ऐतिहासिक फैसला दिया है (देखें, टाइम्स ऑफ इंडिया – 12.10.2013). इस अदालत ने केंद्र व मुख्य चुनाव आयुक्त से उन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई के लिए कहा है, जो चुनावों में धार्मिक राष्ट्रीयता भड़काते हैं. न्यायमूर्ति हुसैन ने कहा है कि हमारे संवैधानिक दर्शन में, सिर्फ एक ही वाद है, वह है ‘भारतवाद’ (इंडियनिज्म). इसके अतिरिक्त जितने वाद हैं, वे भारतवाद के घोषित शत्रु हैं. कोई आदमी, जो खुद को हिंदू राष्ट्रवादी कहता है, मुसलिम राष्ट्रवादी कहता है, सिख, बुद्ध या किश्चियन राष्ट्रवादी कहता है, ऐसा आदमी न सिर्फ भारतवाद के खिलाफ काम कर रहा है, बल्कि भारत की मूल भावना को ही ध्वस्त कर रहा है. न्यायमूर्ति हुसैन ने यह भी टिप्पणी की कि भारतीय संविधान में हर आदमी को सभी अधिकार दिये गये हैं, जिसमें यह भी अधिकार व स्वतंत्रता है कि हर व्यक्ति अपनी आस्था-धर्म के अनुसार आचरण और कार्य करे, फिर ‘धर्मनिरपेक्षता’ (सेक्यूलरिज्म) शब्द को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ने की जरूरत ही नहीं थी.

न्यायमूर्ति हुसैन के अनुसार इस अभिव्यक्ति से भारतीय आबादी के एक भाग में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और देश के लोग बंट गये. अलग-अलग ‘वादों’ के खेल या आश्रय में हाशिये पर जा बैठे. ऐसे तबके में, भारत के अस्तित्व पर ही अत्यंत गंभीर और संभावित खतरा है. ऐसे लोग भारतवाद को छोड़ कर अलग-अलग वादों की शरण लेते हैं.

चुनाव आते ही विश्व हिंदू परिषद भी सक्रिय हो रहा है. यह देश को समझ लेना चाहिए कि अतीत के खंडहर या इतिहास के अवशेष पर भविष्य नहीं बनता. ऐसे प्रयासों को सख्ती से रोकना चाहिए. पर रोकेगा कौन? कांग्रेस, सपा, भाजपा या विहिप, सबको एक-दूसरे की जरूरत है. एक की राजनीति पर दूसरे की राजनीति आधारित है. जरूरत है कि जनता अपने-अपने निजी दायरे से उठे और सिर्फ भारत की बात करे, तब भारतीय राजनीति, नेता सुधरेंगे.

नये तथ्य!

चलते-चलते एक और तथ्य. याद रखिए कुछ वर्ष पहले भारत और चीन को बाहर से जो पैसे कमा कर भारतीय और चीनी अपने-अपने देश भेजते थे (रेमिटेंसेस), वह लगभग 26 बिलियन डॉलर था. 2013 में चीन को बाहर बसे चीनी कमा कर लगभग 71 बिलियन डॉलर भेजेंगे, यह एक मोटा अनुमान है. पिछले साल यह राशि 69 बिलियन डॉलर थी. इस साल बाहर के चीनियों से चीन भेजी जानेवाली यह राशि 71 बिलियन डॉलर से अधिक भी हो सकती है. उधर, भारत को इस वर्ष प्रवासी भारतीयों या भारत से बाहर रह कर कमाई कर रहे लोगों से 60 बिलियन डॉलर का रेमिटेंसेस मिलेगा. अब खाड़ी के देशों में सबसे अधिक लोग केरल से नहीं जा रहे, बल्कि बिहार और पंजाब से जा रहे हैं. (देखें विश्व बैंक के अर्थशास्त्री दिलीप रथ से बातचीत, 06.10.2013 – टाइम्स ऑफ इंडिया).

भारत में एक राज्य से दूसरे राज्य या गांव से शहर जानेवाले प्रवासियों की संख्या, 2011 जनगणना में 40 करोड़ होने की संभावना है. पूरी दुनिया में रोजगार के लिए अपना-अपना वतन छोड़नेवालों की संख्या है, 74 करोड़. चीन के गांव से शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य जानेवाले चीनियों की संख्या है, 22.1 करोड़. भारत से लगभग आधी. भारत की एक-तिहाई आबादी देश में ही रोजगार के लिए भटकती है. प्रवासी भारतीय के रूप में. ये लोग कमा-खा कर जो राशि भेजते हैं, अपने-अपने घरों को वह 70 हजार करोड़ से 1,20,000 करोड़ के बीच है (देखें, टाइम्स 18.10.2013). दूसरे देशों में जो भारतीय प्रवासी (इमिग्रेंट) बनते हैं, उनकी संख्या है, 1.14 करोड़. नासो के 2007-08 के आंकड़ों के अनुसार 80 फीसदी महिलाएं भी प्रवासी बनती हैं. भारत के अंदर ही. 15 से 29 वर्ष के उम्र के बीच के 30 फीसदी युवा भी अपनी जन्मभूमि छोड़ प्रवासी हो जाते हैं. भारत के अंदर रोजगार के लिए अपनी जड़ से अलग होनेवाले इन प्रवासियों के देश के सामाजिक -आर्थिक असर पर गहराई से अध्ययन की जरूरत है.

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