।।राजेन्द्र तिवारी।।
(कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर)
पिछले दिनों रघुराम राजन कमेटी की रिपोर्ट आयी थी, जिसमें राज्यों के पिछड़ेपन को मापने का नया पैमाना दिया गया है. इस रिपोर्ट को लेकर तमाम बहसें हुईं, लेकिन जहां से इसका करारा जवाब मिलने की उम्मीद थी, उस खेमे का जवाब अब आया है. मैं बात कर रहा हूं प्रोफेसर जगदीश भगवती के स्कूल की. उम्मीद इसलिए भी थी कि जिस गुजरात मॉडल के प्रोफेसर भगवती हिमायती हैं, उसे राजन रिपोर्ट के पैमाने पर अल्प विकसित माना गया है. विकास के मॉडल को लेकर बहस तो काफी दिनों से चल रही है, लेकिन इसने तेजी पकड़ी प्रोफेसर ज्यां द्रेज और प्रोफेसर अमर्त्य सेन की ताजा किताब ‘ अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शंस’ के प्रकाशन के बाद.
इससे पहले प्रोफेसर जगदीश भगवती और प्रोफेसर अरविंद पनगड़िया की किताब ‘इंडियाज ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ आयी थी. इस किताब में इकोनॉमिक ग्रोथ को प्राथमिकता पर रखते हुए उन तमाम आरोपों के जवाब दिये गये हैं जिनमें यह कहा जाता रहा है कि आर्थिक विकास की दौड़ में भारत के राजनेताओं ने आधारभूत सुविधाओं की अनदेखी की, जिसके चलते अमीर-गरीब की खाईं बढ़ती जा रही है. इसके उलट प्रोफेसर अमर्त्य सेन की किताब में समाज कल्याण की योजनाओं का हवाला दिया गया है कि विकास का फायदा तभी होगा, जब यह समावेशी और कल्याणकारी हो. पिछले दिनों विकास के माडल को लेकर प्रो भगवती ने खुले तौर पर प्रो अमर्त्य सेन को खुली बहस की चुनौती दी थी.
खैर, इन दोनों किताबों पर बात करना मेरा मकसद नहीं है. मैं तो यह बताना चाह रहा हूं कि रघुराम राजन कमेटी की रिपोर्ट पर प्रोफेसर भगवती के खेमे से प्रतिक्रि या का इंतजार खत्म हो गया है. इस स्कूल के प्रो अरविंद पनगड़िया ने शनिवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिख कर बहुत आक्र ामक तरीके से रघुराम राजन रिपोर्ट को खारिज कर दिया. लेख की शुरु आत में कहा गया है गुजरात मॉडल यानी प्रो जगदीश भगवती के मॉडल की रेपुटेशन इस रिपोर्ट की सतही आलोचना से उबरने की ताकत रखती है. यहां मैं बताता चलूं कि राजन रिपोर्ट के पैमाने के हिसाब से गुजरात अल्प विकसित राज्यों की श्रेणी में आता है. गुजरात मॉडल के सपोर्ट से लेख की शुरुआत करते हुए प्रो पनगड़िया ने रिपोर्ट में सुझाये गये फार्मूलों पर सवालिया निशान लगाया है. इनका कहना है कि केंद्रीय फंडों के राज्यों के बीच आबंटन के तीन चैनल पहले से ही मौजूद हैं.
पहला चैनल है फाइनेंस कमीशन, जो संवैधानिक निकाय है और आबंटन का आधार तय करता है. दूसरा चैनल है प्लानिंग कमीशन और तीसरे चैनल का काम करती हैं, केंद्रीय योजनाएं जिनके जरिये राज्यों को केंद्र से फंड मिलते हैं. वह सवाल उठाते हैं कि राजन रिपोर्ट में इनमें से किसी का विकल्प नहीं सुझाया गया है तो क्या सरकार एक नया चैनल खोलने की फिराक में है? इसके बाद वह केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों के संदर्भ में रघुराम राजन और कमेटी के दूसरों सदस्यों की सक्षमता पर भी सवाल उठाते हैं. उनका कहना है कि राजन की कोर एक्सपरटाइज कॉरपोरेट फाइनेंस में हैं. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि राजन कमेटी में जरूरी विशेषज्ञता ला सकते थे. लेकिन उन्होंने जो कमेटी बनायी उसमें एक भी केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों का विशेषज्ञ नहीं था. इसके बाद वह अपने सुझाव देना शुरू करते हैं कि रिपोर्ट में क्या होना चाहिए था जो नहीं है. अंत में वह सवाल खड़ा करते हैं कि रिपोर्ट को लेकर इतनी जल्दबाजी क्यों की गयी?
अब देखना यह है कि क्या प्रो अमर्त्य सेन के स्कूल से इसका कोई जवाब आयेगा या नहीं. दरअसल, यह लेख प्रो अमर्त्य सेन के खेमे को उकसाने के लिए ही लिखा गया प्रतीत होता है. लेकिन इसमें बहुत महीन तरीके से बिहार का पक्ष भी ले लिया गया है जिससे जो बहस प्रोफेसर पनगड़िया शुरू करना चाहते हैं, वह बिहार बनाम गुजरात का रूप न ले ले.
और अंत में..
जब कभी उलझन में होता हूं, तो मुझे बचपन में पढ़ी एक कविता याद आ जाती है. मुझे ठीक से याद नहीं कि किस कक्षा की पाठ्यपुस्तक में यह कविता थी. लेकिन इसकी कुछ लाइनें मुझे आज भी कंठस्थ हैं – ..आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बना कर आप ही फंसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है..! अपनी उलझन ही नहीं, बल्कि जब दूसरों को अपनी करनी की वजह से मुश्किल में फंसते देखता हूं तो भी ये लाइनें याद आ जाती हैं. लेकिन न कविता सिर्फ इतनी है और न इस कविता का मूल भाव यह है. यह कविता 1946 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने लिखी थी. इस कविता को आप खुद पढ़िए और समझिए कि यह किस ओर इशारा कर रही है-
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चांद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बना कर आप ही फंसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है.
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूं?
मैं चुका हूं देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चांदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते.
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चांद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूं,
और उस पर नींव रखती हूं नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूं.
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है.
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
‘रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे.’