बीफ पर बेमतलब की राजनीति
वोट बैंक की राजनीति ने देश को कई वर्गों में बांट दिया है. गुजरात में पाटीदारों को करोड़ों रुपये का पैकेज दिया गया है, लेकिन जब मुसलिम अपने वर्ग विशेष के लिए आरक्षण मांगते हैं, तब उसे गैरकानूनी कहा जाता है. पिछले 16 महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेश दौरों से भारत को जिस […]
वोट बैंक की राजनीति ने देश को कई वर्गों में बांट दिया है. गुजरात में पाटीदारों को करोड़ों रुपये का पैकेज दिया गया है, लेकिन जब मुसलिम अपने वर्ग विशेष के लिए आरक्षण मांगते हैं, तब उसे गैरकानूनी कहा जाता है. पिछले 16 महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेश दौरों से भारत को जिस तरह से विश्व राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया है, उस साख को बचाने के लिए हमें समाज को तोड़नेवाली मानसिकता से सावधान रहना होगा.
बीफ के नाम पर बीते कुछ दिनों से जिस तरह से भारत की पुरसुकून जिंदगी में धार्मिक उन्माद भड़काने की दोतरफा कोशिशें की जा रही हैं, उससे न केवल देश के अंदर सौहार्द को खतरा बढ़ रहा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को बट्टा लगा है. सबको साथ लेकर चलनेवाले सशक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से भारत के वर्चस्व को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया है और संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता के लिए मजबूती से दावेदारी पेश की है, वह सब इस प्रकरण के चलते कहीं ठंडे बस्ते में न चला जाये. साक्षी महाराज, आजम खान, साध्वी प्राची, संगीत सोम, ओवैसी एंड ओवैसी, संजीव बालियान आदि नेताओं के बयानों की आक्रामकता देश में एक-दूसरे के प्रति नफरत के बीज बो रही हैं. ये नेता हैं, इसलिए इनकी बात मीडिया द्वारा दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रही है. ऐसे नेताओं के गैरजिम्मेवाराना और भड़काऊ बयानों को लेकर जो चंद जरूरी सवाल मन में उभरते हैं, वे हैं- नेताओं का काम लोगों का मार्गदर्शन करना है या ऐसे बयानों से उन्हें दिग्भ्रमित कर देश को तोड़ना? क्या हम पड़ोसी देश पाकिस्तान की राह पर चल पड़े हैं? क्या हम एक शांतिप्रिय देश को सीरिया, यमन या इराक जैसा बनाना चाहते हैं?
देश में बीफ पर बेमतलब के बयानों पर गौर करें तो साफ पता चलेगा कि इसकी आड़ में सिर्फ राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश हो रही है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि गाय का मसला वैदिक धर्म माननेवालों की आस्था से जुड़ा है. वे गाय को माता के समान मानते हैं. इस आस्था का पूर्ण सम्मान करते हुए शहंशाह बहादुर शाह जफर ने अपने दौर में एक फरमान जारी किया था कि बकरीद के अवसर पर कोई भी गोवध नहीं करेगा.
कुछ साल पहले दारुल उलूम देवबंद ने भी बकरीद पर फतवा जारी किया था कि मुसलिम गाय का वध न करें, क्योंकि इससे हिंदू भाइयों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं. देश के कई राज्यों में गोवंश (गाय, बछड़ा, सांड एवं बैल) के वध पर कानूनी प्रतिबंध है, कुछ में तो यह प्रतिबंध 1955 में ही लगा था. हालांकि, ऐसे ज्यादातर राज्यों में इस प्रतिबंध को सही ढंग से लागू नहीं किया गया है. यहां प्रश्न यह है कि सर्वधर्म सद्भावना वाले भारत देश का अब क्या होगा? इस प्रकार की अभद्र और खतरनाक भाषा से टीवी देख रहे छोटे-छोटे बच्चों एवं भावी नागरिकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा. ऐसा नहीं कि भारत में इस प्रकार की घटनाएं इससे पहले नहीं हुई. कांग्रेस राज में हजारों दंगे हो चुके हैं. उसी प्रकार से जब गुजरात दंगे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में हुए, तो उन्होंने उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी. गुजरात दंगों से भी दर्दनाक दंगे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर में हुए थे. आज वहीं के मुख्यमंत्री मुसलमानों के वोट बैंक को संजोये रखने के लिए 45 लाख की ग्रांट अखलाक के परिवार को देते हैं. क्या अगर उत्तर प्रदेश के चुनाव करीब नहीं होते, तो वे यह पैसा देते?
बहस इस बात पर भी है कि भारत अब बीफ का सबसे बड़ा निर्यातक है (पिछले साल के आधिकारिक आंकड़ों में भारत ब्राजील के बाद दूसरे स्थान पर था.) और यहां मुसलिम ही नहीं, बल्कि सभी वर्गों के लोग गोमांस खाते हैं. भारत के दस राज्यों (पश्चिम बंगाल, केरल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप) में गोवध पर कोई प्रतिबंध नहीं है. तर्क दिया जाता है कि गरीब लोग मटन, चिकन, मछली आदि का महंगा मांस खाने की स्थिति में नहीं हैं, अतः गोवध किया जाता है. कुछ हिंदू लोग भी यह तथ्य स्वीकारते हैं कि वैदिक समय में गाैमांस खाया जाता था. बहस का तीसरा बिंदु यह है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में किसी को लोगों के किचन में घुसने या यह देखने का अधिकार नहीं है कि कौन क्या खाता है.
इस तरह की बहस और तर्कों में मैं सिर्फ यह जोड़ना चाहूंगा कि गैया मैया के साथ-साथ भारत देश (पिताश्री) का भी ध्यान करें और ऐसे मसलों को सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का जरिया न बनाएं, राजनीतिक स्वार्थों के लिए देश को पीछे की ओर न धकेलें. जब हिंदू-मुसलमान एकमत से देश को आगे ले जाने के बारे में सोचेंगे, तभी भारत चीन और ब्रिटेन से आगे बढ़ पायेगा.
भारत की पहचान सर्वधर्म सद्भावना वाले देश की रही है, लेकिन देश एवं राज्यों में जिम्मेवार पदों पर बैठे नेता अपनी अभद्र भाषा से नयी पीढ़ी को आखिर क्या सिखाना चाह रहे हैं? टीवी पर आपके बयान देख कर छोटे बच्चों एवं भावी नागरिकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? सांप्रदायिक दंगों को शह देने की राजनीति का दंश देश बहुत झेल चुका है.
गुजरात दंगों की बात करनेवाले नेता भूल जाते हैं कि कांग्रेस राज में भी हजारों दंगे हो चुके हैं. हाल के वर्षों में सबसे भयानक दंगा तो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर में हुआ है, जहां न भाजपा की सरकार है, न कांग्रेस की. अभी दादरी कांड में मारे गये अखलाक को जितनी बड़ी राशि दी गयी है, क्या उत्तर प्रदेश के चुनाव करीब नहीं होते, तो यह संभव होता? वोट बैंक की स्वार्थ युक्त राजनीति ने आज देश को विभिन्न वर्गों में बांट दिया है. गुजरात में पटेल पाटीदारों को करोड़ों रुपये का पैकेज दिया गया है, लेकिन जब मुसलिम राजनेता अपने वर्ग विशेष के लिए आरक्षण की मांग करते हैं, तब उसे गैरकानूनी कह कर नकार दिया जाता है. यह ठीक है कि धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग गैरकानूनी है और मुसलिम वर्ग को अच्छी शिक्षा प्राप्त कर, अपने हाथों की ताकत पर विश्वास कर, हर क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए, मगर गरीब और पिछड़े मुसलिम क्या करें? गुजरात में पाटीदारों को विशेष सहायता दी जा सकती है, तो इन वर्गों को क्यों नहीं?
लेकिन, ये मसले मिल-बैठ कर ही सुलझाये जाने चाहिए. झगड़ा-फसाद एवं धार्मिक उन्माद का वातावरण भारत को सिर्फ और सिर्फ पीछे ही ले जायेगा. जब श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहलियों और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच संघर्ष चल रहा था, तो वहां कार्यरत विदेशी कंपनियां एक-एक कर मलेशिया, वियतनाम और सिंगापुर चली गयीं. पाकिस्तान के कई इलाकों में आतंकवाद और गृह युद्ध की तरह के हालात के कारण बहुत सी विदेशी कंपनियां वहां से वापस जा चुकी हैं और नयी कंपनियां आने के लिए तैयार नहीं हैं. सीरिया, यमन जैसे हालात की तो कल्पना भी कंपा देनेवाली है. पिछले 16 महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेश दौरों से भारत को जिस तरह से विश्व राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया है, उस साख को बचाने के लिए हमें समाज को तोड़नेवाली मानसिकता से सावधान रहना होगा और हर व्यक्ति एवं समाज को अपने स्तर पर मिल्लत के लिए काम करना होगा.
फिरोज बख्त अहमद
राजनीतिक विश्लेषक एवं मौलाना आजाद के पौत्र
firozbakhtahmed08@gmail.com