भुखमरी को नजरअंदाज न करें नेता
क्या खाया जाये और क्या नहीं, इसका अंदाजा पिछले दिनों घटी घटनाओं से लगाया जा सकता है. एक तरफ खाने के मेन्यू पर राष्ट्रीय बहस छिड़ी है, वहीं, उस आबादी की तरफ कोई देखना मुनासिब नहीं समझता, जिसकी धर्म और जाित ही भूख है. वह भूख मिटाने के लिए बच्चों तक को गिरवी रखने को […]
क्या खाया जाये और क्या नहीं, इसका अंदाजा पिछले दिनों घटी घटनाओं से लगाया जा सकता है. एक तरफ खाने के मेन्यू पर राष्ट्रीय बहस छिड़ी है, वहीं, उस आबादी की तरफ कोई देखना मुनासिब नहीं समझता, जिसकी धर्म और जाित ही भूख है. वह भूख मिटाने के लिए बच्चों तक को गिरवी रखने को मजबूर है.
इसे नजरअंदाज करने के पीछे अहम कारण यह है कि भूख पर राजनीति नहीं हो सकती और न ही इस पर नेताओं को वोट ही मिल सकता है. कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के ललितपुर के सकरा गांव के कुछ किसानों ने दो वक्त की रोटी के लिए करीब डेढ़ दर्जन बच्चों को राजस्थान के ऊंट पालकों के पास गिरवी रख दी थी.
आज उस घटना को करीब 12 साल हो गये, लेकिन जिले की स्थिति जस की तस है. देश में ओड़िशा, बंगाल, पूर्वी बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान आदि कई राज्य हैं, जहां के कई इलाकों के लोग भुखमरी के िशकार हैं, पर उस पर कोई बहस नहीं हो रही.
– शुभम श्रीवास्तव, ई-मेल से