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राजनीति में रिश्वत का दुष्चक्र

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया जो राजनेता करोड़ों रुपये की कमाई करते हैं, वे इस धन का करते क्या हैं? अकसर हम नौकरशाहों के पास से भारी मात्रा में नगदी पकड़ाने की खबरें पढ़ते-सुनते हैं, पर राजनेताओं के बारे में इस तरह के समाचार नहीं आते. आखिर ऐसा क्यों होता है? इसका एक […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
जो राजनेता करोड़ों रुपये की कमाई करते हैं, वे इस धन का करते क्या हैं? अकसर हम नौकरशाहों के पास से भारी मात्रा में नगदी पकड़ाने की खबरें पढ़ते-सुनते हैं, पर राजनेताओं के बारे में इस तरह के समाचार नहीं आते. आखिर ऐसा क्यों होता है? इसका एक कारण यह हो सकता है कि नेता अफसरों से अधिक ताकतवर होते हैं, इसलिए उन पर आम तौर पर छापे नहीं मारे जाते. परंतु यह सिर्फ एक अनुमान ही है.
कुछ समय पहले मैंने नेताओं की श्रेणी के एक व्यक्ति के साथ खुल कर बातचीत की थी. वे तब विधायक हुआ करते थे और आजकल मंत्री हैं. हमारी बातचीत का विषय राजनीति में भ्रष्टाचार और नेताओं द्वारा धन का उपयोग था. उन्होंने मुझे बताया कि चुनाव प्रचार में किसी राजनीतिक दल द्वारा किये गये कुल खर्च का आधा हिस्सा मतदाताओं को रिश्वत देने में खर्च किया जाता है. और, उस धन का आधा हिस्सा मतदान के दिन दोपहर बाद खर्च किया जाता है.
यह पैसा उन्हें दिया जाता है, जिन्होंने जान-बूझ कर तब तक मतदान नहीं किया होता है, ताकि वे पार्टियों को पैसा देने के लिए मजबूर कर सकें. इसी वजह से चुनाव के समय भारी मात्रा में नकदी पकड़ाने की खबरें आती हैं, जिनका संबंध राजनेताओं और उनके सहयोगियों से होता है.
मुझे इस बातचीत की याद उस समय आयी, जब बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण की खबर आयी. इसमें बताया गया था कि 80 फीसदी सर्वेक्षित मतदाताओं का विचार था कि किसी के पक्ष में मतदान करने के बदले धन या उपहार लेना कोई रिश्वत नहीं है और यह नैतिक रूप से भी गलत नहीं है. इस सर्वेक्षण से चिंतित चुनाव आयोग ने बिहार में इस मनोवृत्ति के विरोध में पोस्टर लगाना और रेडियो पर प्रचार कराना शुरू कर दिया है.
यह आंकड़ा साढ़े चार हजार मतदाताओं के बीच किये गये सर्वेक्षण से आया था और इस सर्वेक्षण को वैज्ञानिक और सांख्यिकी रूप से सही माना गया था. सर्वेक्षित मतदाताओं के समूह में संतुलन के लिए उन्हें खास तरीके से चुना गया था, जिसके तहत अधिक तथा कम मतदान वाले जिलों से समान संख्या में मतदाताओं का चयन हुआ था.
यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस सर्वेक्षण के नतीजों को स्वयं चुनाव आयोग ने ही प्रस्तुत किया था. यानी कि यह आंकड़ा विश्वसनीय है. मुझे यह सर्वेक्षण आश्चर्यजनक नहीं लगा और मुझे नहीं लगता है कि यह मनोवृत्ति सिर्फ बिहार तक ही सीमित है.
जिस राजनेता से बातचीत का उल्लेख मैंने पहले किया है, वे कर्नाटक से हैं. कुछ साल पहले खबर आयी थी कि तमिलनाडु के राजनीतिक दल अखबारों में रुपये डाल कर मतदाताओं तक पहुंचा रहे हैं. वे अखबार उन लोगों द्वारा पढ़े जाते हैं, जो विशेष विचारधाराओं का अनुसरण करते हैं. इस तरह से राजनीतिक दलों के लिए अपने संभावित मतदाताओं की पहचान करना आसान था.
राजनीतिक पार्टियों द्वारा कपड़े, शराब और अन्य चीजें बांटने की खबरें खूब छपती हैं. कई बार तो यह सब खुलेआम होता है. ऐसा माना जाता है कि इन सबसे झुग्गी-झोपड़ियों के मतदाता ही आकर्षित होते हैं, मध्यम वर्ग के लोग नहीं, परंतु इस बात को पुष्ट करने के लिए कोई आंकड़ा या सबूत नहीं है कि यह रिश्वत सिर्फ गरीब लोगों तक ही सीमित है. बिहार में चुनाव आयोग द्वारा कराया गया अध्ययन इस बात को इंगित करता है कि हमारे पास अपने समाज और उसकी खामियों का पर्याप्त विश्लेषण नहीं है.
हमारी बैठकों और मीडिया में होनेवाली बहसें राजनेताओं और सरकारों पर केंद्रित दिखायी पड़ती हैं. उनमें कभी-कभार ही हमारे बारे में चर्चा होती है. भ्रष्टाचार को ऐसी चीज के रूप में देखा जाता है, जिसमें साधारण नागरिक सिर्फ पीड़ित के रूप में होता है, भागीदार के रूप में नहीं. समाज में बेहतरी को सरकार और राजनीतिक दलों की जिम्मेवारी के रूप में देखा जाता है.
बिहार का यह सर्वेक्षण ऐसा ताजातरीन उदाहरण है, जो यह बताता है कि इस तरह की सोच बहुत बचकानी है. ऐसे अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि भारतीयों की नजर में उनकी चोरी और अनैतिकता पूरी तरह सही है. देश की तीन फीसदी आबादी आयकर चुकाती है.
इसमें भारी बहुमत शहरी, मध्यम वर्गीय, वेतन पानेवालों की है, जिनका कर उनकी कंपनी काट लेती है. आयकर में चोरी और गलत तरीके तथा उपलब्ध छूटों के बेजा इस्तेमाल द्वारा कर बचाने के अनेकों मामले हैं.
तथ्य यह भी है कि अगर इन कर्मचारियों को ऑटोमैटिक कर काट लेने की जगह स्वेच्छा से कर देने का विकल्प दिया जाये, तो करदाताओं की संख्या में और कमी आ जायेगी. ऐसे करदाताओं की संख्या उन भारतीय व्यापारियों और पेशेवर लोगों, जैसे डॉक्टरों, वकीलों और अन्य सेवाएं देनेवालों लोगों की संख्या के बराबर आ जायेगी, जो अपनी सेवाओं के बदले खूब आमदनी करते हैं.
मुझे पता है और मध्य वर्ग के अधिकतर लोगों को भी मालूम है कि जो लोग अपने पेशे में लाखों रुपये कमाते हैं, परंतु अधिक कर नहीं चुकाते हैं, क्योंकि उन्हें यह वैधानिक बकाये की जगह ‘नुकसान’ लगता है. जब यह इंगित किया जाता है, तो यह बात अकसर कही जाती है कि सरकार इस धन का समुचित ढंग से उपयोग नहीं करती है, इसलिए व्यापारी भी कर चुकाने की जरूरत नहीं महसूस करते हैं.
हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर सिद्धांतों और नैतिकता में यही कमी मतदाताओं में भी देखने को मिले. अगर हम इसे ठीक से विश्लेषित करें, तो हमें यह निष्कर्ष निकालने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि मतदाताओं ने ही राजनीति को भ्रष्ट किया है, राजनेताओं ने नहीं.
जो राजनीतिक दल ईमानदारी से अपना प्रचार करेंगे, तो वे भारत जैसी जगह पर शायद असफल हो जायेंगे. यहां तक कि आम आदमी पार्टी के मंत्रियों ने भी रिश्वत लेना शुरू कर दिया है, जैसा कि खुद पार्टी ने भी स्वीकार किया है.
उनके ऐसा करने का कारण यह नहीं है कि वे स्विट्जरलैंड में पैसा जमा करना चाहते हैं, बल्कि वे अपने मतदाताओं को रिश्वत देने के लिए ऐसा कर रहे हैं. यह सब एक ऐसा दुष्चक्र है, जो सिर्फ भारत जैसे देश में ही पनप सकता है.

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