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चीन की तरक्की और नागरिक चेतना

बलदेव भाई शर्मा पूर्व संपादक, पांचजन्य केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार आने के बाद दुनिया के कई प्रमुख देशों, खासकर पड़ोसी चीन, के साथ भारत के संबंधों को लेकर नयी आशाएं जगी हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत आगमन और नरेंद्र मोदी के चीन दौरे के दौरान दिखे उत्साह […]

बलदेव भाई शर्मा
पूर्व संपादक, पांचजन्य
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार आने के बाद दुनिया के कई प्रमुख देशों, खासकर पड़ोसी चीन, के साथ भारत के संबंधों को लेकर नयी आशाएं जगी हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत आगमन और नरेंद्र मोदी के चीन दौरे के दौरान दिखे उत्साह से इन आशाओं काे बल मिला है. हालांकि, चीनी नेताओं के सीमा संबंधी विवादास्पद बयानों और चीनी सेना की सीमा पर भड़काऊ कार्रवाई से चीन के विस्तारवादी रवैये की झलक मिलती रही है.
इसलिए जरूरी है कि चीनी मंसूबों के प्रति हम सतर्क भी रहें, फिर वह चाहे पाकिस्तान सहित हमारे पड़ोसियों के साथ चीन की भारत विरोधी दिखनेवाली दुरभिसंधियां हों या भारतीय बाजार में बड़े पैमाने पर फैला चीनी सामान अथवा भारतीय सीमा पर चीनी अतिक्रमण. राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर इन खतरों के प्रति मोदी सरकार सचेत दिखती है.
चीन के रवैये और नीतियाें से इत्तेफाक न रखते हुए भी भारत में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो चीन की आर्थिक प्रगति और एक शक्तिशाली देश के रूप में उभरने को चमत्कार से कम नहीं मानते. कभी अफीमचियों का देश कहा जानेवाला चीन, कम्युनिस्ट शासन की तानाशाही जैसी स्थितियाें से गुजरता हुआ, आज एकदम विपरीत ध्रुव पर खड़ा है, जहां दम तोड़ता कम्युनिज्म खुली अर्थव्यवस्था की चकाचौंध के बीच आंखें मिचमिचा रहा है.
रिपब्लिक ऑफ चाइना आज भले ही कम्युनिस्ट पार्टी और उसके झंडे तले शासित हो, लेकिन कम-से-कम चीन की राजधानी बीजिंग और उसके आसपास के इलाकों में कम्युनिज्म के चिह्न शायद ही कहीं दिखाई देते हों. आधुनिक चीन के निर्माता माने जानेवाले माओत्से तुंग की यादें सिर्फ एक संग्रहालय तक सिमट कर रह गयी हैं, जो ग्रेट हॉल ऑफ पीपुल्स और ऐतिहासिक थ्येन आन मन चौक के नजदीक स्थित है.
मोबाइल और नये-नये गैजेट्स में उलझी नयी पीढ़ी को शायद ही माओ याद आते हों, बहुतेरे तो उनका नाम तक नहीं जानते. वैसे भी माओ के बाद कम्युनिस्ट शासकों ने उनकी यादों को खत्म करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. पिछले महीने बीजिंग प्रवास में मुझे ऐसी कई सच्चाइयों से रूबरू होने का मौका मिला, जो चीन की रहस्यमयता को लेकर उपजती कई तरह की शंकाओं के बीच छिपी थीं.
बीजिंग के प्रसिद्ध सिल्क स्ट्रीट मार्केट की एक दुकान पर सजी छोटी-बड़ी मूर्तियों के बारे में जब सेल्स गर्ल्स अमांडा से पूछा, तो उसने टूटी-फूटी अंगरेजी में प्रतिप्रश्न किया- ‘आर यू इंदू?’ मैंने जिज्ञासा जतायी- ‘इंदू मींस?’ तो उसने स्पष्ट करते हुए कहा- ‘इंडियन.’ यानी चीन में भारत से कोई जाये, किसी भी भाषा-मजहब-प्रांत का, तो वह उनके लिए ‘इंदू’ है.
चीन में हिंदुस्तान से गये लोगों को ‘इंदू’ यानी ‘हिंदू’ के नजरिये से ही देखा जाता है, बस उच्चारण का फेर है. लेकिन इस ‘इंदू’ को भारत में जब ‘हिंदू’ कह दिया जाता है, तो बवाल मच जाता है कि देश की विविधता को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.
बहरहाल, अमांडा का नाम भी बदलते, खासकर यूरोपीय आधुनिकता के सांचे में ढल रहे, चीन का परिचायक है, यानी चीन में पारंपरिक नाम भी पीछे छूट रहे हैं. अमांडा से जब मैंने एक कोने में रखी माओ की 8-10 मूर्तियों के बारे में पूछा, तो अचंभे से बोली- लाफिंग बुद्धा लो. मैं फिर माओ की मूर्ति की ओर इशारा करता हूं, तो वह झुंझला कर कहती है- इसे कोई नहीं खरीदता, ऐसे ही रखी रहती है.
लेना है तो ले लो. मेरे पूछने पर वह बताती है कि साल में दो-चार मूर्तियां मुश्किल से बिकती हैं, बहुत से लोग और खासकर नौजवान तो जानते भी नहीं कि ये चेयरमैन माओ हैं. आर्थिक तरक्की की बेतहासा दौड़ किस कदर जड़ों से काटती जाती है, चीन के कम्युनिस्ट नियंता इससे बेखबर होकर अपने देश को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनाने में लगे हैं.
इस सबके बावजूद जिस चीन से अमेरिका भी घबराहट की सीमा तक आशंकित रहता है, वहां के समाज में अनुशासन, नियम-कायदों के पालन की प्रवृत्ति, समय की प्रतिबद्धता, नागरिक दायित्वबोध जैसी खासियतें कम-से-कम बीजिंग में तो खूब देखने को मिलती हैं.
दिल्ली से बड़े क्षेत्रफल और आबादीवाले बीजिंग में आप घूम आइए, आपको शायद ही किसी रेड लाइट पर ट्रैफिक पुलिसकर्मी मिले. बावजूद इसके, रात के समय भी रेड लाइट पार करते कोई शायद ही मिलेगा. स्वच्छता की स्थिति यह है कि सड़कों पर कूड़ा-करकट तो छोड़िए, तिनके भी ढूंढने पड़ेंगे.
किसी भी सड़क पर आप खड़े हो जाएं, हर आधे घंटे में साइकिल पर क्लिनिंग किट लेकर चलता सफाईकर्मी दिख जायेगा. हवाई अड्डे से लेकर गली-मुहल्लों की सड़कों तक स्वच्छता के प्रति नागरिक चेतना साफ दिखती है. नियम-कायदे से रहना, साफ-सफाई रखना वहां एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सरकार के जो भी प्रयास रहे हों, पर मुझे लगता है कि चीन को आगे लाने में इस नागरिक चेतना का योगदान भी कम नहीं है. भले ही किसी दौर में इस सबके लिए सख्ती की गयी हो, लेकिन अब की पीढ़ियां एक अनुशासित और सिविक सेंस वाले ढांचे में ढल गयी हैं.
हमारे यहां आज भी ‘इंडिया टाइम’ कह कर समय पालन का मजाक उड़ाया जाता है. मोदी सरकार स्वच्छता अभियान चला रही है, तो बहुतेरे लोग चुटकी ले रहे हैं कि कूड़ा-कचरा सड़कों व सार्वजनिक स्थलों पर फेंक दो, सरकार का काम है सफाई करना.
जब नौकरी में, सामाजिक जीवन में दायित्व बोध न हो, समय और कर्तव्य का मान दिलानेवाला व्यक्ति आंखों में खटकने लगता है, तो सरकार सिर के बल क्यों न खड़ी हो जाये, देश के हालात नहीं बदल सकते. अच्छे दिन केवल महंगाई कम होने से नहीं आएंगे, सोच और नीयत में बदलाव भी जरूरी है.
चीन में भाषा के सम्मान और स्वाभिमान का आलम यह है कि टैक्सी ड्राइवर से लेकर अधिकारियों व मंत्रियों तक से अंगरेजी में बात करने के लिए आप तरस जायेंगे. वहां किसी को यह आत्महीनता है ही नहीं कि उसे अंगरेजी नहीं आती. यह अलग बात है कि बाजारीकरण के दौर में चीन अंगरेजी को बाजार की भाषा के तौर पर आवश्यकतानुसार अपनाने की ओर बढ़ रहा है, लेकिन मानसिकता के स्तर पर अंगरेजी मंदारिन भाषा पर शायद ही कभी हावी हो पाये.
चीन के साथ वैचारिक और नीतिगत मतभेद रखने के बावजूद वहां के समाज की इन खासियतों को नजरअंदाज किया जाना शायद ही संभव हो, क्योंकि ये खासियतें ही किसी समाज और देश को आगे ले जाने में अहम भूमिका निभाती हैं.

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