सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों में आधार-कार्ड को जरूरी बनानेवाले सरकारी कदमों को निराधार बताता रहा है, पर केंद्र सरकार शुरू से ही इस कार्ड को लेकर अपने पांव अंगद की तरह जमाये रही है. तभी तो यह तर्क देकर कि इससे नागरिकों के निजता के अधिकार का हनन नहीं होता है, उसने राज्य सरकारों से पीडीएस का राशन आधार-कार्ड के मार्फत ही देने को कहा है और इससे देश के 50 फीसदी से ज्यादा लोगों के लिए आधार-कार्ड रखना अनिवार्य हो गया है.
यह आधार-कार्ड को लेकर सरकार के प्रेम का ही सबूत है. यह प्रेम इतना निष्ठावान है कि आधार-कार्ड को जरूरी बनाने के सरकारी तर्क भले धराशायी हो जायें, पर सरकार को इस प्रेम पर जरा भी शंका नहीं होती. अब सरकार के इस आधार-प्रेम की वजह पर अंगुली उठानेवाला एक समाचार आरटीआइ की एक अर्जी के हवाले से आया है.
आधार-कार्ड जारी करनेवाली संस्था ने अर्जी के जवाब में खुद माना है कि अगस्त, 2015 तक 25 हजार से ज्यादा फर्जी या डुप्लीकेट आधार-कार्ड बने हैं. यह अद्भुत स्थिति है कि कल्याणकारी योजनाओं में फर्जीवाड़े को रोकने के नाम पर जिस कार्ड को रामबाण नुस्खा बताया जा रहा था, वही फर्जीवाड़े का शिकार दिख रहा है.
आधार-कार्ड को लेकर सरकार का मुख्य तर्क यही रहा है कि यदि हर नागरिक को उसकी मौलिक शारीरिक बनावट यानी अंगुली और आंख की पुतली को कसौटी मानते हुए एक ऐसी पहचान संख्या दे दी जाये, जिसका सत्यापन देशभर में कहीं भी किया जा सके, तो फिर जो लोग सरकारी सुविधाओं- जैसे सब्सिडीवाले राशन, एलपीजी गैस, इंदिरा आवास योजना या वंचित वर्ग के छात्रों के सशक्तीकरण के लिए दी जानेवाली छात्रवृत्ति आदि- में फर्जीवाड़ा करके बेजा फायदा उठाते हैं, उन्हें रोका जा सकेगा.
लेकिन आरटीआइ की अर्जी के जवाब से तो यही जाहिर होता है कि फर्जीवाड़े को रोकने की तरकीब खुद ही फर्जीवाड़े का शिकार है. पहले भी ऐसे समाचार आये हैं कि कहीं किसी ने किसी देवता के नाम और फोटो पर आधार-कार्ड बनवा लिये. यह समाचार आधार-कार्ड जारी करने में अपनायी जानेवाली प्रक्रिया पर शक जगाने के लिए काफी था, लेकिन सरकार नहीं चेती.
अब तक 1,500 करोड़ से अधिक रुपये खर्च करके 90 करोड़ से ज्यादा लोगों के आधार-कार्ड बन चुके हैं, लेकिन आरटीआइ के तहत हुए खुलासे से बने हुए कार्ड और उस पर खर्च की गयी रकम के औचित्य को धक्का पहुंचा है. इसलिए अच्छा होगा कि सरकार अपने आधार-कार्ड प्रेम पर नये सिरे से गौर करे.