अंतर्विरोधों का जटिल चेहरा

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार एक लोकतांत्रिक समाज में लोग अपने आचार-विचार और भूमिका बदलने के लिए स्वतंत्र होते हैं. पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बीते दो दशकों में जिस पैमाने पर अपनी भूमिका, अपने फैसले और पैंतरे बदले हैं, वह हैरतअंगेज है. उनके इन कारनामों ने उन्हें जितना महत्वपूर्ण बनाया, उससे ज्यादा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 16, 2015 1:08 AM
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
एक लोकतांत्रिक समाज में लोग अपने आचार-विचार और भूमिका बदलने के लिए स्वतंत्र होते हैं. पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बीते दो दशकों में जिस पैमाने पर अपनी भूमिका, अपने फैसले और पैंतरे बदले हैं, वह हैरतअंगेज है. उनके इन कारनामों ने उन्हें जितना महत्वपूर्ण बनाया, उससे ज्यादा विवादास्पद. बदमानी की हद छूते इन विवादों के बावजूद वह राष्ट्रीय राजनीति में लगातार बने रहे हैं. बीते पचास वर्षों से वह अपने को समाजवादी कहते आ रहे हैं, पर बड़े उद्योगपतियों-धनपतियों से अपने कामकाजी और सियासी रिश्ते उन्होंने कभी छुपाये नहीं.
वह अपने को सामाजिक न्यायवादी कहते हैं, पर इस वक्त सपा के सारे सांसद उनके अपने परिवार से हैं. मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए वह अपने को अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोधी बताते रहे, पर न्यूक्लियर डील पर अमेरिका के सबसे बड़े मददगार बने. भाजपा-विरोध की राजनीति करते हुए वह यूपी में सेक्युलर सियासत का चेहरा बने, लेकिन मौका आने पर वह भाजपा का समर्थन लेने और देने से भी पीछे नहीं हटे. कभी वह जनता दल परिवार की एकता के सूत्रधार बनते हैं, तो कुछ ही समय बाद उसके विध्वंसक बन जाते हैं. इस तरह वह राष्ट्रीय राजनीति में विरोधाभासों की बेमिसाल शख्सियत बनते गये हैं.
सत्ता, शक्ति और संपत्ति, तीनों उनके पास हैं. लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सियासत लगातार दयनीय दिख रही है. अस्सी के दशक के बाद भी कुछ बरसों तक मुलायम की एक जुझारू और संघर्षशील नेता की छवि थी. यही कारण है कि चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद मध्यमार्गी लोकदली-जनतादली राजनीति में उनका सिक्का जम गया. कामयाबी उनका पीछा करती रही और समय-समय पर उन्हें पद और प्रतिष्ठा मिलती गयी. तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री और एक बार देश के रक्षामंत्री बने.
एक समय तो लगा कि वह प्रधानमंत्री भी बन जायेंगे. उस दौर में वामपंथी नेता भी सरकार का नेतृत्व करने के लिए उन्हें सबसे भरोसेमंद मानते थे. लेकिन जिस तरह उन्होंने अप्रैल, 1999 में वाजपेयी सरकार गिरने के बाद वैकल्पिक सरकार बनाने के कांग्रेसी प्रयासों को ऐन मौके पर पंचर किया, ठीक उसी तरह कुछ जनतादली समूहों ने मुलायम के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में रातोंरात रोड़ा अटकाया.
सितंबर, 2003 में वह यूपी जैसे बड़े सूबे के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. संसद भवन से कुछ ही दूरी पर तत्कालीन पार्टी महासचिव अमर सिंह का दफ्तर था. उन दिनों वह सरकारी बंगला सपा सियासत का सदरमुकाम होता था. संसद के गलियारे और उक्त दफ्तर में यह आम चर्चा थी कि यह सरकार सपा के विधायकों की संख्या के बल पर नहीं, अमर-मुलायम और भाजपा के दो शीर्ष रणनीतिकारों की साझा पहल पर बनी है. दक्षिण दिल्ली के एक बंगले में डिनर टेबल पर सरकार गठन का सारा प्रबंधन हुआ. भाजपा ने समर्थन-वापस लेकर मायावती की सरकार गिरा दी थी. वह तत्काल चुनाव नहीं चाहती थी, इसलिए मुलायम सरकार का रास्ता साफ हुआ. कुछ ही दिनों बाद लखनऊ में सपा ने एक बड़ा सम्मेलन किया.
उसमें मुलायम ने कहा कि उनकी पार्टी में अमर सिंह जैसे दो-तीन और लोग हो जायें, तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता.
इटावा-मैनपुरी के गांवों-कस्बों में साइकिल से चल कर डाॅ लोहिया की समाजवादी राजनीति और फिर चौधरी चरण सिंह के ‘अजगर’ के सामाजिक गठबंधन के इर्दगिर्द रह कर लोगों के बीच पैठ बनानेवाले मुलायम इस कदर बदले कि अपने अतीत की शिनाख्त भी उनके लिए मुश्किल सी हो गयी. किसानों और गरीब नौजवानों का नेता काॅरपोरेट-घरानों, फिल्म स्टारों, देसी-विदेशी उद्योगपतियों के साथ संगति बिठाता नजर आया. ऐसे में भला उनकी सोच और सियासत क्यों नहीं बदलती!
जो लोग उनके हाल के विवादास्पद बयानों, बिहार में नीतीश-लालू गंठबंधन के खिलाफ तीसरा मोर्चा खोलने या भाजपा के प्रति मुलायमियत दर्शाने पर चकित हैं, वे शायद बीते दो दशकों के दौरान मुलायम की सियासत के विभिन्न पड़ावों को विस्मृत कर रहे हैं. सिर्फ दो-तीन अहम पड़ावों का जिक्र करना ही पर्याप्त होगा.
ज्यादा पुरानी बात नहीं. 2008 में मुलायम ने ओमप्रकाश चौटाला के इनेलोद, वृंदाबन गोस्वामी के एजीपी, चंद्रबाबू नायडू के टीडीपी और कुछ अन्य दलों को मिला कर यूएनपीए नाम से एक नया मोर्चा बनाया. कुछ ही महीने बाद सिर्फ न्यूक्लियर डील के लिए उन्होंने इस मोर्चे को ध्वस्त कर दिया. सप्ताह भर पहले, यूएनपीए ने न्यूक्लियर डील मुद्दे पर मनमोहन सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने का फैसला किया था.
यूपी में स्वयं सपा ने आंदोलन छेड़ा. लेकिन रातोंरात न जाने क्या हुआ कि मुलायम-अमर की जोड़ी ने फैसला पलट दिया, कहा- ‘अब उनकी पार्टी न्यूक्लियर डील का संसद में समर्थन करेगी.’ रातोंरात पलटने के पीछे मुलायम ने बड़ा कारण बताया-पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की सलाह को. हालांकि दिल्ली के सियासी गलियारे में यह भी चर्चा थी कि सरकार ने उन्हें सीबीआई जांच के नाम पर डराया और बड़े कारपोरेट घरानों ने अमेरिका के नाम पर पटाया. भाजपा सहित तब के कई विपक्षियों ने इसके पीछे ‘कांग्रेस ब्यूरो आॅफ इन्वेस्टीगेशन’(सीबीआइ का यह व्यंग्यात्मक नामकरण भाजपा ने किया था) का हाथ बताया.
एक और उदाहरण है, संसद के पिछले सत्र में जारी गतिरोध के दौरान सपा की भूमिका. मुलायम ने भूमि अधिग्रहण से लेकर ललितगेट तक, अनेक मुद्दों पर विपक्षी-अभियान का हिस्सा बनने के बजाय या तो सरकार का साथ दिया या अपनी तटस्थता के जरिये भाजपा को मदद पहुंचायी.
कांग्रेस सहित अन्य विपक्षियों ने इसके पीछे ‘सेंट्रल भाजपा ब्यूरो’(विपक्षियों द्वारा सीबीआइ का नया व्यंग्यात्मक नामकरण) का हाथ बताना शुरू किया. आज बिहार चुनाव में मुलायम की अगर भाजपा को प्रकारांतर से मदद करने की मंशा है, तो यह कोई नयी बात नहीं. इस बार, कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल इसके पीछे नोएडा के कुख्यात यादव सिंह प्रकरण की सीबीआइ जांच को अहम कारण बता रहे हैं, जिसमें मुलायम के कुछ भाई-भतीजों की संलिप्तता बतायी जाती है.
बहरहाल, इस बात को शायद ही कोई नजरंदाज करे कि मुलायम आज अपने बेटे अखिलेश के लिए सियासी मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं और स्वयं अपने को आधुनिक राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक गैरभरोसेमंद और विरोधाभासी राजनेता के तौर पर दर्ज कर रहे हैं.

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